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देने लग जाए, उपाध्याय को अपमानित करने लग जाए या क्रोध के प्रावेश में पाकर गुरु से दुर्व्यवहार करने लग जाए, या जो फिर कभी शिक्षक को देखना भी पसद नहीं करे, भला ऐसा शिष्य कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है ? भले ही उपाध्याय कितने ही अध्यापन-कार्य में निष्णात हों। क्रोध शिष्य के लिये शिक्षा ग्रहण करने में पूर्ण बाधक है।
३. प्रमाद-धर्म से या विद्या से सर्वथा विमुख रहना प्रमाद है । शिक्षा की उपेक्षा करना, शिक्षा देने वाले से दूर रहना, शिक्षा ग्रहण के लिए मन में रुचि का न होना, शोक न होना, अभ्यास न करना, कुसंगति में रहना, अवारा घूमना, खेल, तमाशे में, खाने-पीने और विकथा में समययापन करना, ये सभी चेष्टाएं प्रमाद की सहचारिणियां हैं। प्रमाद भी मानव को शिक्षा-प्राप्ति नहीं होने देता, वह विद्या और धर्म से साधक को दूर रखता है।
४. रोग-अस्वस्थता भी मानव को शिक्षा नहीं लेने देती । जब शरीर रोगों से ग्रस्त हो रहा हो, पीड़ा से व्याकुल हो रहा हो, तब रोग के कारण शिक्षा की चाह होते हुए भी शिष्य उपाध्याय से अध्ययन नहीं कर सकता, वह पढ़ा हुमा भी भूल जाता है। प्रागे का पाठ लेना रह जाता है, अत: रोग भी ज्ञान के क्षेत्र में वाधक है, क्योंकि रोग के कारण अध्ययन में व्यवधान होने से वह अधूरा रह जाता है और कुछ साधक छान रोग का बहाना बनाकर कक्षा में वैठते ही नहीं हैं। ८०]
[पंचम प्रकाश