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बहलाने के लिए वहां पहुंच जाते हैं ।
मेरु की तरह बहुश्रुत ज्ञानी भी महत्ता की सभी विशेषतायो से सम्पन्न होता है । वह विनय-समाधि, श्रुतसमाधि, तप-समाधि और प्राचार-समाधि रूप चार वनो से युक्त होता है। उनकी पहली अवस्था रजतमय, दूसरी स्वर्णमय और तीसरी अवस्था रत्नमय काण्डो से युक्त है । वे नानाविध असाधारण लब्धियो से प्रकाशमान होते है । देवो के लिए भी उनका जीवन आकर्षण रूप होता है । जैसे मेरु पर्वत कल्पान्त-काल की प्रबल वायु से भी कम्पित नही होता, बैसे ही बहुश्रुत भी परीषह और उपसर्गों के प्रवल तूफानो के आने पर भी निष्प्रकम्प रहते है । अत: बहुश्रुत को मेरु की उपमा से उपमित किया गया है ।
१६ स्वयंभूरमण समुद्र की उपना
समुद्रो मे सबसे बड़ा स्वयभूरमण समुद्र है । वह अति गम्भीर है, नाना प्रकार के रत्नो, मणियो, मोतियो से भरा हुआ है। उसमें अक्षय जल है।
उसकी तरह बहुश्रुत भी अनन्त ग णों से परिपूर्ण होता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नों से युक्त अनेक प्रकार के अतिशयो से सम्पन्न होता है। आहारक, वैक्रिय आदि लब्धियों का स्वामी होता है । गांभीर्य एवं प्रसन्नता ये दो गुण जहां होते है वहां सभी गुण स्वत: ही प्रा नमस्कार मन्त्र]
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