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प्रागम-व्यवहारियों के लिए है, यह सूत्रव्यवहारियो के लिए एवं आज्ञा, धारणा, जीत व्यवहारियों के लिए लिखा गया है। यह पाठ स्याद्वाद एव अनेकान्तवाद को प्रमाणित करता है। इस प्रकार उपाध्याय प्रत्येक पाठ को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से इस प्रकार समझाते है, जिससे कि सूत्र-गत विषयो का स्पप्टीकरण हो सके । दुर्गम्य विषय को सुगम्य बनाना यह उपाध्याय का कर्तव्य है। उपाध्याय बनाम बहुश्रुत :
विच्छिरोमणि, निर्लोभी, विनम्र. अप्रपत्त, सयमी मुनिवर को बहुश्रु त कहते है, अथवा जिसने गुरु-श्राम्नाय से जैन शास्त्रो तथा जैनेत र शास्त्रो का सर्वाङ्गीग अध्ययन कर लिया हो, वचन जिसने प्रागम-शास्त्रो का वृत्ति, बृहदवृत्ति, नियुक्ति, भाष्य आदि सहित अ ययन कर किया हो वही बहुश्रुत है।
इसके अतिरिक्त जैनेतर दर्शन-शास्त्रो का तथा धर्म-शास्त्रों का चिन्तन मननपूर्वक स्वाध्याय किया हो, वह बहुश्र त माना जाता है । यद्यपि बहुश्र त का प्रयोग सभी विद्वान मूनिवरों के लिये किया जाता है, तथापि इस शब्द का विशेष प्रयोग प्राचार्य एवं उपाध्याय के लिये ही होता है । पूज्य आचार्यों की अपेक्षा अधिक-तर इसका प्रयोग उपाध्याय के लिये किया जाता है, क्योकि उनके जीवन की विशिष्ट साधना है सयमपूर्वक प्राप्त विद्वत्ता । जब कि आचार्य का मुख्य लक्ष्य है-प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप जिन
[पचम प्रकाश