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३. विक्षेपणा-विनय-प्रतिपत्ति-जब श्रोता एवं शिष्य परदर्शन द्वारा किये जानेवाले आक्षेपों से क्षुब्ध हो जाएं, तब उनको स्वदर्शन में स्थिर करना, उनके चित्त को एक स्थान से हटाकर दूसरी ओर लगाना ही 'विक्षेपणा-विनय' है ।
(क) जिसने पहले कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त न किया हो, परन्तु सम्यग्दर्शन के प्रति अभिमुख हो, उसको धर्म-मार्ग बताकर सम्यग्दृष्टि बनाना, उसके साथ इस प्रकार प्रेम और समता का व्यवहार करना जैसे एक दृष्टपूर्व और अतीव परिचित अतिथि के साथ किया जाता है तो वह शीघ्र ही मिथ्यात्व का परित्याग करके सम्यग्दर्शन में स्थित हो जाता है।
(ख) सम्यग्दृष्टि को देश विरतित्व या सर्व-विरतित्व की ओर प्रेरित करना, उसे चारित्रवान बना कर अपना सहधर्मी बना लेना और दूसरे को अपने पथ का पथिक बनाना उसका आवश्यक कर्तव्य है।
(ग) किसी धर्मात्मा को किसी के द्वारा दिये गए प्रलोभन या भय से फिसलते हुए को देखकर उसे पुनः धर्ममार्ग में स्थित करना, धर्ममार्ग में सम्भलने के लिये उसे सहारा लगाना सम्यग्दर्शन का भूषण है।
(घ) चारित्र-धर्म की वृद्धि शिष्यो मे जैसे भी संभव हो सके वैसी प्रवृत्ति करना, अथवा अहिंसा, संयम और तप नमस्कार मन्त्र
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