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से एकल बिहारी होता है, वह प्राचार्य की आज्ञा से नहीं होता। जो आठ गुणों से एकल विहार प्रतिमा को अंगीकार करता है, वह एकल विहारी होते हुए भी आज्ञा में होता है । एकाकी-विहार-प्रतिमा का स्वरूप जानना, उसके विधिविधान का परिचय प्राप्त कराना, आज्ञा में रहने वाले पर सौम्य-दृष्टि रखना, दूसरों को प्रोत्साहित करना, स्वयं उनकी आराधना करना 'एकाकी विहार प्रतिमा है । 'इन सभी भेदप्रभेदो को 'प्राचार-विनय-प्रतिपत्ति' कहते है।
श्रुत-विनय-प्रतिपत्ति-सुनकर और पढकर जब भी शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया जाए, तब वह श्रुत है, उसकी अोर श्रद्धापूर्वक झुकाव होना ही श्रुत-विनय है। श्रुत-विनय से ज्ञान की प्राप्ति होती है । भगवान् की वाणी सर्वथा ज्ञेय और उपादेय होती है । भगवान की वाणी और श्रुतकेवली की वाणी का विनय करना ही तीर्थङ्कर एव अरिहन्तो का विनय है । चतुर्विध श्रीसंघ का मूलाधार जिनवाणी ही है। जिनवाणी की पाशातना करना अनन्त तीर्थङ्करों की प्राशातना है।
(क) सूत्र वाचना-प्राकृत भाषा में 'सुत्त' शब्द के संस्कृत रूप सूत्र, सुप्त, सूक्त, इस प्रकार अनेक रूप बनते है। जो अर्थ की सूचना करता है अथवा जो अर्थ रूप मोती को शब्द रूप धागे मे पिरोता है, अथवा जो मार्गप्रदर्शक हो उसे सूत्र कहते हैं । जो अर्थ को सीता है, वह भी सूत्र है । अर्थ नमस्कार मन्त्र]
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