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कुल क्षेत्रो की व्यवस्था करना, समय अनुसार प्राचार के सभी भेदो का पालन करना तथा दूसरों से पालन कराना, अपने से बड़ों का विनय करना 'संग्रह-परिज्ञा-सम्पदा' है।
इन आठ संपत्तियो से प्राचार्य समद्ध माना जाता है और ऐसा समृद्ध पुरुष ही 'नमो आयरियाण' के द्वारा नमस्कार पाने योग्य होता है।
___ आचार्य उऋण कैसे हो सकता है ? जैसे शिष्यों का प्राचार्य के प्रति विनयशील होना परम कर्तव्य है तभी वे शिष्य प्राचार्य के ऋण से उऋण हो सकते है, वैसे ही प्राचार्य का भी परम कर्तव्य है कि वह शिष्यों को विनय में प्रवृत्त करे, उन्हें संयम के प्रति निष्ठावान एवं सुशिक्षित करे, तभी प्राचार्य उऋण हो सकता है । अन्यथा वह निन्दा का पात्र बन जाता है । प्राचार्य का यह भी कर्तव्य है कि शिष्यों को आचार-विनय, श्रृत-विनय, विक्षेपणा-विनय और दोष-निर्घातन-विनय, इन चारो विनय-प्रतिपत्तियों से समृद्ध बनाए । इनका विवरण इस प्रकार है :
१. आचार-विनय-प्रतिपत्ति - गणी का सबसे पहला कर्तव्य है कि शिष्यों को आचार-विनय मे निपुण करे । इसकी सिद्धि से शेष भेदो का सिद्ध होना निश्चित है । इस वाक्य में तीन शब्द हैं-प्राचार, विनय और प्रतिपत्ति । इन तीनों का भाव है प्राचार में आदर पूर्वक प्रवृत्ति कराना । आचार शब्द से अभिप्राय है संयम, तप, गण और विहार, इन
नमस्कार मन्त्र]