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७ प्रयोग-मति सम्पदा-बुद्धिमान् ही दूसरों की शंका का समाधान कर सकता है और अनेक विध प्रश्नों का उत्तर दे सकता है, अत: आचार्य के लिए प्रयोगमति का होना सुनिश्चित है। जिज्ञासा को शान्त करने लिए जो प्रश्नोत्तर होते हैं, उन्हें संवाद कहते हैं । जब दूसरे को पराजित करने की इच्छा से प्रश्न पूछे जाते हैं तब उसे विवाद कहा जाता है । इसमें सभासद और सभापति की परम पावश्यकता रहती है, क्योंकि जय और पराजय का निर्णय सभापति ही देता है। शास्त्रार्थ करने की कला को प्रयोगमति-सम्पदा कहा जा सकता है। शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होने से पहले प्रति-द्वन्द्वी सभासद और सभापति इनकी अनुकूल-प्रतिकूल प्रकृति को देखकर शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होना चाहिए । सभा कैसी है और किन विचारों की है ? सभापति कैसे विचारों का है ? क्षेत्र अनुकूल है या प्रतिकूल ? इन सब बातों का जानना आवश्यक होता है। शास्त्रार्थ के मुख्य विषय क्या हैं ? इसकी जानकारी भी अनिवार्य है। अत: प्राचार्य का शास्त्रार्थकला में निपुण होना उसकी 'प्रयोग-मति-सम्पदा' है।
८. संग्रह-परिज्ञा-संपदा-शास्त्रार्थ-महारथी प्रवचन-प्रभावक होता है। स यम-उपयोगी उपकरणों का तथा संयम-उपयोगी शिष्यों का संग्रह प्रभावक ही कर सकता है। सर्व-विरतियों के लिए निर्दोष साहित्य, मकान, वस्त्र, पट्टा चौकी, फूस आदि का संग्रह करना, वर्षावास के लिए अनु६८]
[चतुर्थ प्रकाश