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और जगत की अद्भुत गहराइयों और विविध अनुभूतियों को जो व्यक्त कर रहा हो और साथ ही सूत्रोच्चारण के साथ-साथ ध्वनि-शास्त्र के अनुरूप उसके उच्चारण की विधियों के प्रयोगों से पूर्णतः परिचित हो, वही जीवन स्रष्टा मुनीश्वर प्राचार्यत्व के महान् दायित्व का पालन कर सकता है । मननशील महर्षि ने प्राचार्य की इसी अर्थवत्ता को समझते हुए ही उसे 'सूत्रार्थविद्' कहकर उसके महापद का समर्थ मूल्याकन किया है।
__ यहां एक और बात भी ध्यान देने योग्य है कि 'सूत्र' शब्द के दो अर्थ है, जो कुछ संक्षेप में कहा जाय, वह भी सूत्र कहलाता है और एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने के साधनों को भी सूत्र कहा जाता है। विश्वस्त 'सूत्र' शब्द सूत्र शब्द के इसी अर्थ की ओर सकेत कर रहा है । सूत्र के लिए ही 'श्रुत' शब्द का भी प्रयोग किया गया है । तीर्थङ्कर देवों ने अपने युग में जो कुछ कहा वह संक्षेप मे कहा-सूत्र रूप में कहा । तीर्थङ्करो ने कुछ भी लिखा नही, उनसे अर्थ सुना गया, गणधरों ने अर्थ को सुन कर सूत्रो का निर्माण किया, अत: सूत्र ही श्रुत कहलाए । भावी सुदीर्घ परम्परा में होने वाले प्राचार्य स्वयं तीर्थको के मुख से अर्थ का श्रवण नही कर सके, परन्तु अपनी व्युत्पन्न प्रतिभा के आधार पर वे ऐसे विश्वस्त सूत्र खोज लेते हैं जिनसे वे सूत्रों के उस मूल तक पहुंच जाते हैं जो तीर्थङ्करों के सम्यक् ज्ञान की नमस्कार मन्त्र]