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कोष में संजोकर रख सकते होंगे और साथ ही वह अपने शिष्य-वर्ग को इस प्रकार उबुद्ध करेगा जिससे उनकी ज्ञान-धारा बहुमुखी होकर प्रवाहित हो सके।
प्राचार्य की बौद्धिक महत्ता के कुछ अन्य मा ‘-दण्ड भी निर्धारित किये गये है। प्राचार्य पर केवल अनुयायियों के मार्ग-दर्शन का दायित्व ही नही है, उसे तर्क का आश्रय लेकर सूझ-बूझ से परिपूर्ण वचनावली से, देशकाल एव वातावरण के परिज्ञान पूर्वक अपनी ज्ञान-धारा मे उन्हे भी स्नान कराना होता है जो भटके हुए है, जो प्रतिकूल साधना को प्रात्म-साधना समझने की भूल में उलझे हुए है, प्रतः प्राचार्य का यह दायित्व है कि वह जो कुछ बोले, वातावरण एव श्रोताओं की वृत्तियों को समझ कर बोले, उसका प्रत्येक वचन देश-विदेश की परिस्थितियों के अनुकूल हो और साथ ही उसकी प्रत्येक उक्ति-प्रत्युक्ति श्रोता को परख कर कही गई हो।
प्राचार्य के लिए श्रुत-सम्पदा-सम्पन होना भी प्रावश्यक है । जिसने सर्वज्ञ मुनीश्वरों द्वारा कहे गए 'साधना सूत्रों को अनेक दृष्टियो से समझा हो, जिनके सम्बन्ध में अनेक तत्त्ववेत्ताओं के विचारों को जाना हो, अनेक सूत्रों को इस प्रकार समझा हो कि उसका जीवन सूत्रमय बन गया हो, उसके बौद्धिक आलोक के लिए कुछ भी ज्ञातव्य शेष न रह गया हो, सूत्रों के अन्तस्तल का स्पर्श करके जीवन ६२]
[चतुर्थ प्रकाश