________________
भूमि के किसी गहरे गह्वर मे अवस्थित हो गए है, ऐसी व्युत्पन्न प्रतिभा के धनी ही 'सूत्र विद्' कहलाते है।
सूत्र के रूप में जो भी कहा गया है, वह संक्षिप्त शब्दों में कहा गया है, अत: उसके वास्तविक अभिप्राय का बोधन, उसकी भावात्मक गहराइयों का चिन्तन और तीर्थङ्करो के आशय की सही पकड़ करनेवाला प्रज्ञा-पुरुष ही श्रु त-सम्पन्न कहलाता है ।
४. शरीर-सपदा-श्रुतज्ञान का आधार शरीर है। शरीर का सुस गठित एव प्रभावशाली होना अवश्यभावा है। आचार्य का शरीर लम्बाई-चौड़ाई, ऊंचाई और मोटाई की अपेक्षा सर्वाङ्ग सुन्दर एवं सुडौल होना चाहिए, उसका कोई भी अङ्ग अधूरा बेडौल एवं लज्जनीय न हो, शरीर नीरोग हो, इन्द्रियां सभी पूर्ण हों, इत्यादि विशेषतामों से युक्त शरीर को ही शरीर-संपदा माना जाता है ।
सूव हो या अर्थ, प्राचार हो या विचार, सबका प्रारम्भ शरीर से ही होता है। शरीर के बिना कुछ रह नहीं सकता, कुछ भी हो नहीं सकता। प्राचार्य के अन्तर का परीक्षण
और उसकी प्रभावशीलता की परख शरीर ही बता सकता है। शरीर-शास्त्री शारीरिक आकृतियों के आधार पर ही जीवन के भूत, भविष्य और वर्तमान का अध्ययन कर लेते है । लम्बे कान मस्तिष्क-शक्तियों के अनन्त विकास का परिचय देते हैं, हाथ के अगुष्ठ-मूल का उभरा हुआ भाग विलास६४]
चतुर्थ प्रकाश