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प्रत्यक्ष हो सके । नमस्कार मन्त्र में प्रथम 'नमो अरिहन्ताणं" कह कर त्याग और वैराग्य के वे अन्तिम छोर प्रणित किये गए हैं जहां पहुंच कर जो कुछ हेय है वह सब छोड़ दिया जाता है अरिहन्तों के लिये कुछ छोड़ना शेष नहीं रह जाता। केवल चार अधाति कर्म कच्चे सूत जैसे आयुष्य कर्म के साथ बन्धे रहते हैं जिन्हें अरिहन्त क्षण भर में अनायास ही तोड़ देते हैं और सिद्धत्व की ओर चल पड़ते है।
"नमो सिद्धाणं" कहते ही आत्मा को अपने दूसरे पर अन्तिम लक्ष्य सिद्धत्व की अनुभूति होने लगती है और 'नमो सिद्धाणं" कहते-कहते आत्मा का सिद्धत्व सूर्योदय पर प्रकाश के समान प्रकट होने लगता है और उस प्रकाश में प्रात्मा को उस सिद्धत्व की उन्मुखता प्राप्त हो जाती है जो उसका अन्तिम जीवन-लक्ष्य है। अत: 'नमो सिद्धाणं' में सिद्धों को नमस्कार तो है ही साथ ही अपनी आत्मा में छिपे सिद्धत्व का प्रकटीकरण भी है।
[ तृतीय प्रकाश