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मूल है, अत: सिद्ध-नमस्कार धर्म-भाव का संवर्धक है । धर्म को उत्कृष्ट मङ्गल माना गया है, क्योकि इसके जीवन में आते ही अहिंसा, संयम और तप आदि में स्वत: ही प्रवृत्ति होने लगती है। यह प्रवृत्ति प्रात्मा को सिद्धत्व की ओर उन्मुख कर देती है, अत. सिद्ध त्व की प्राप्ति के लिये 'नमो मिद्धाण' का उच्चारण करते हुए सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलत कि जैन दर्शन जिन्हें सिद्ध कहता है वही वेदान्तियो का निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। यदि सिद्धो को ब्रह्म कहकर नमस्कार किया जाय इसमें जैन दर्शन को कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु वेदान्त' दर्शन में ब्रह्म निर्गुण-निराकार होते हुए भी मृष्टि का कर्ताधर्ता है, किन्तु जैन दर्शन का ब्रह्म अर्थात् सिद्ध कर्तृत्व
आदि से सर्वथा रहित है, क्योकि उसे कर्ता मान लेने पर उसमें इच्छा, वासना और इसी प्रकार के अन्य गुणों का अस्तित्व भी स्वीकार करना पड़ेगा, जो कि जन्म-मरण के कारण माने जाते है । सिद्ध अर्थात् ब्रह्म प्राकृतिक गुणोंअवगुणो से सर्वथा मुक्त हैं यही उनका सिद्धत्व है ।
यहां एक बात और भी जानने योग्य है, वह यह कि प्रत्येक प्रात्मा का अन्तिम ध्येय है मुक्ति-आवागमन से छुटकारा। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये साधक आत्मा के समक्ष कोई महान् आदर्श होना चाहिये, जिससे मुक्ति का मार्ग नमस्कार मन्त्र]
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