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२०-२४-पञ्चविध प्राचारयुक्त-सावधान रहकर उत्साह पूर्वक पांच आचारों का पालन करनेवाला, क्योंकि आचार-निष्ठ ही दूसरो से आचार का पालन करा सकता है, अतः आचार्य का आचार-युक्त होना अनिवार्य है।
२५. सूत्रार्थ-तदुभय-विधिज्ञ-सूत्रागम, अर्थागम और उभयागमविधि का जानकार हो। शास्त्रानुकल क्रिया का शिष्यों द्वारा गलन करवाने में समर्थ हो ।
२६-२६-प्राहरण हेतूपन य-नयनिपुण-- दृष्टान्त, हेतु, उपसंहार और नय इनका आश्रय लेकर व्याख्यान आदि मे विषय को स्पष्ट करने मे दक्ष हो।
३०. ग्राहणा-कुशल -दूसरो को समझाने मे अतिनिपुण हो।
३१-३२. स्व-पर-समयवेदी-अपने और दूसरे सम्प्रदायों के सिद्धान्तों का ज्ञाता हो और दूसरों के द्वारा अपने दर्शन पर आक्षेप किए जाने पर वह उन्हे उचित उत्तर देकर अपने पक्ष का समर्थन कर सकता हो ।
३३. गम्भीर-गम्भीरता ही प्राचार्य के व्यक्तित्व और गौरव की रक्षा कर सकती है।
३४. दीप्तिमान-तेजस्वी पुरुष किसी दूसरे के प्रभाव में आनेवाला नहीं होता, अतः प्राचार्य का तेजस्वी होना अनिवार्य है। ५६]
चतुर्थ प्रकाश