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का आचरण, ज्ञानाचारादि पांच प्राचारों, इर्या आदि पांच समितियों और त्रियोग-गुप्ति, इन छत्तीस गुणों से युक्त महा मानव को धर्मगुरु या धर्माचार्य कहा गया है। दूसरे प्रकार के छत्तीस गुण
१. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा ४. वचन-संपदा, ५. बुद्धि-सम्पदा ६. वाचना-सम्पदा ७. प्रयोग-सम्पदा, ८. सग्रह-सम्पदा, इन आठ सम्पदाओ के प्रत्येक के चार चार भेद होते है और १. आचार-विनय २. श्रुत-विनय, ३. विक्षेपण-विनय, ४. दोष-निर्धातन विनय, विनय के ये चार भेद साथ जोड़ने पर पूरे छत्तीस गुण आचार्य के हो जाते है। तीसरे प्रकार के छत्तीस गुण
आठ संपदाए, छः आवश्यक, बारह प्रकार का तप, दस स्थिति-कल्प कुल मिलाकर आचार्य के ये छत्तीस गुण कहे जा सकते है। चौथे प्रकार के छत्तीस गुण
ज्ञानाचार के आठ, दर्शनाचार के आठ, चारित्राचार के आठ और तप आचार के बारह भेद, इस प्रकार इन सब भेदो को मिलाकर आचार्य के छत्तीस गुण कहे जाते हैं । पांचवें प्रकार के छत्तीस गुण
१. विश्वास-पात्र, २. तेजस्वी, ३. तत्कालीन संघ नमस्कार मन्त्र]
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