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१८. अरिहन्त भगवान् जहां विचरते हैं, वहां देवकृत जानु
प्रमाण वैक्रियमय अचित फूलों की वृष्टि होती हैं
उन फूलों के डण्ठल सदा नीचे की ओर ही रहते हैं। १९. अरिहन्त भगवान् जहां विचरते हैं, वहां इन्द्रियों एवं
मन के प्रतिकूल शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध नहीं
रहते हैं। २०. अरिहन्त भगवान् जहां विचरते है, वहां मनोज्ञ शब्द,
स्पर्श, रूप, रस, गन्ध प्रकट होते है। २१. अरिहन्त भगवान् का स्वर देशना देते समय हृदयस्पर्शी
होता है और वह एक योजन तक चारों ओर भली
भान्ति सुनाई देता है। २२. अरिहन्त भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्मोपदेश
देते है। २३. अरिहन्त भगवान् के मुखारविन्द से निकली हुई
अर्धमागधी भाषा को देव, अनार्य मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप जाति के तिर्यञ्च प्राणी अपनी-अपनी भाषा मे समझ लेते है और उन्हे वह उपदेश हित
कारी, कल्याणकारी एव सुखप्रद प्रतीत होता है । २४ अरिहन्त भगवान् का सानिध्य प्राप्त होते ही जिनका
पहले से ही वैर-भाव चला आ रहा है, ऐसे भवनपति,
वानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा मनुष्य नमस्कार मन्त्र ]
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