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भगवन्तों के बताये हुए मार्ग पर ही चला करते हैं और चल रहे हैं, अत: सर्वोपरि मार्ग-दर्शक यदि कोई है तो वे अरिहन्त भगवान ही है।
पच परमेष्ठी के प्रथम पद में "नमो अरिहन्ताण" में उन्ही अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार किया जाता है जो अतिशयो से पूर्ण है।
अरिहन्तों का पुण्यस्मरण मंगलमय होता है, अत: मङ्गलमूर्ति अरिहन्त भगवान् को पुन:-पुनः स्मरण करने से स्मरण करनेवाले का जीवन भी मगलमय बन जाता है । इसके लिये प्राचीन मनोवैज्ञानिकों ने भृगी कीट का उदाहरण प्रस्तुत किया है कि भृगी कीट (गोबरिल्ला) भृग का स्मरण करता-करता स्वय भी भृग ही बन जाता है ।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी नाना प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि मगल - भावना से युक्त मन बाह्य वातावरण को भी मंगलमय बना देता है। जैसे शुभ भावना एवं मंगल-कामना के साथ पौधों के पास जाने पर उनमे विकास प्रक्रिया की तीव्रता पाई जाती है। फिर मगलमूर्ति अरिहन्त का पुण्य स्मरण जीवन को मंगलमय क्यों नहीं बना देगा ? अतः “नमो अरिहन्ताण" रूप मगलमा नमस्कार तो नमस्कार करने वालों का मंगल करेगा ही।
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[ द्वितीय प्रकाश