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मे अन्तर है:
३: अव्याबाध-वेदनीय कर्म आत्मा को सासारिक सुख एव दुःख का अनुभव कराता है। इस कर्म के क्षय होने से वास्तविक एव सदा स्थायी रहने वाले आत्मिक सुख या अानन्द की प्राप्ति होती है । जिसमे कभी भी किसी तरह की बाधा न आए, वही असीम आनन्द अव्याबाध शब्द से व्यवहृत होता है।
४. क्षायिक सम्यग्दर्शन-यह गुण प्रात्मा मे तभी उत्पन्न होता है जबकि दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय कर्मों को समाप्त कर दिया जाए। दर्शन-मोहनीय अखड सत्य की ओर बढने नही देता और चारित्र-मोहनीय सत्य मे स्थिर नही रहने देता। अखण्ड सत्य को सदा-सदा के लिए प्राप्त कर लेना ही क्षायिक सम्यग्दर्शन है। सिद्धो मे यह भी एक विशेष गुण है। जिस गुण का जो वाधक कर्म है उसके सर्वथा क्षय होने से वह गुण अपने आप में पूर्ण हो जाता है।
५. अक्षयस्थिति-यह गुण आयु-कर्म के क्षय से प्रकट होता है, क्योकि अक्षयस्थिति के बल से आत्मा जन्ममरण के चक्र से सर्वथा मुक्त हो जाता है। आत्मा को जन्म से लेकर मृत्यु तक शरीर रूपी कैदखाने में नियत समय तक रोके रखने वाला कर्म आयुकर्म ही है । सिद्धो का आयुकर्म नष्ट हो जाने से वहां स्थिति की मर्यादा नहीं रहती, इसी
[ तृतीय प्रकाश