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आचार्य, उपाध्याय, नव-दीक्षित, स्थविर, रोगी,. साधू-साध्वी, श्रावक और श्राविका तथा समाज की सेवा एवं वैयावृत्य कर ना कर्मयोग है।
परोक्षवर्ती परम श्रद्धेय पंच-परमेष्ठी के प्रति पूर्ण आस्था रखना, वाणी से जप एव स्तुति करना, अवर्णवाद न करना, शरीर से उनके दर्शन एवं वाणी सुनने का प्रयास करना, और उनकी विनय करना ही भक्ति-योग है । ' नव-नव ज्ञान प्राप्त करने में उपयोग लगाना, ज्ञान की आराधना मे सतत मन को जोड़ना, तत्त्व-चर्चा में रुचि र खना, निद्रा विक्था से सदा-सदा के लिए निवृत्त होकर स्वाध्याय मे समय-यापन करना ज्ञान योग है।
ज्ञान और दर्शन की परिपक्व अवस्था ही चारित्र है । ज्ञानयोग मे मन लगाने से अशुभ प्रवृत्तिया स्वत: ही नष्ट हो जाती है। जप भी भक्ति-योग का ही अविभाज्य अश है। वीतराग की भक्ति से साधक सामान्य साधना प्रारम्भ करता है और अत मे निरालब ध्यान की उच्च अवस्था में पहुंच जाता है।
जप और फल-श्रुति मानव की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह उस कार्य मे कभी भूल कर भी प्रवृत्ति नहीं करता जिस कार्य के फल
नमस्कार मन्त्र]
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