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जैनदर्शन अरिहन्न भगवान को ही साकार परमेश्वर मानता है। अरिहन्त पद जन्म से नहीं, सयम. तप आदि विशिष्ट साधना द्वारा प्राप्त होता है । वर्द्धमान महावीर का जन्म महामानव के रूप मे हुआ था, वे एक आदर्श राजकुमार थे. प्रव्रज्या ग्रहण करने से लेकर साढे बारह वर्ष तक उन्होने जो विशुद्ध चारित्र का पालन किया, शरीर-निरपेक्ष घोर तप किया, लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए अनेक कष्टो को समता से सहत त्रिया, रागद्वेष पर विजय प्राप्त की और जब वे सदा-सदा के लिए केवलज्ञान के आलोक से आलोकित हुए तभी वे अरिहन्त बने । जेनेतर दर्शनकारो ने जैसे एक ही ईश्वर माना है और कहा है कि उसके तुल्य अन्य कोई परमेश्वर नही बन सकता, अनादिकाल से वह एक ही है और एक ही रहेगा, जैन-दर्शन को इस मान्यता पर विश्वास नही है ।
अरिहन्त पद कम से कम एक समय मे बीस महासाधक और अधिक से अधिक एक सौ सत्तर महासाधक प्राप्त कर सकते है। वे सब अपनी आयु मगलमय विहार और धर्म देशना के द्वारा पूर्ण करके निर्वाण-पद को प्राप्त हो जात है । उनका कोई भी क्षण अमंगलमय नही होता । उनमे चौतीस अतिशय होते हैं । वे ऐसे अतिशय होते है जो अरिहन्तो मे ही पाए जाते है, अन्य किसी में नही । वे अतिशय निम्नलिखित है
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[द्वितीय प्रकाश