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जप जितना भी शान्तचित्त एकाग्र मन से किया जाए वह जप प्रत्येक दृष्टि से लाभदायक होता है । जप करते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखना उचित होता है । जप के समय अपने भावो को शुद्ध एव निष्काम रखना अनिवार्य है । अपनी ध्यानवत्ति को प्रात एवं रौद्र ध्यान से हटाकर मन्त्र की ओर ही लगाना चाहिए।
__ जप प्रानुपूर्वी से भी हो सकता है, अनानुपूर्वी से भी, पश्चादनुपूर्वी से भी और पदस्थ-ध्यान से भी जप किया जा सकता है । यदि प्रानुपूर्वीरूप मे कण्ठस्थ रीति से जप हो तो वह मन की एकाग्रता के लिए अत्युत्तम होता है । जप के समय यदि महामन्त्र के प्रत्येक अक्षर की ओर ध्यान देकर पढा जाए तो वह मन की एकाग्रता के लिए विशेष साधक बन जाता है।
जप और योग जैन-धर्म मे योग का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जो साधक को प्रात्मा के साथ जोड़ता है. उसे आत्म-निष्ठ बनाता है वही योग है। श्रद्धा के रचनात्मक कार्य को भी योग कहा जा सकता है।
योग के तीन रूप है-कर्म-योग, भक्ति-योग और ज्ञानयोग। प्रत्यक्षरूप मे पूज्यभावो से या करुणाभाव से
[प्रथम प्रकाश