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अरिहन्त पद जीव को जीवन में एक ही बार प्राप्त होता है, पून-पुन: नही । उसका क्रमिक विकास इस विधि से होता है
प्रत्येक मानव में मानवता का विकास थोडा या बहुत होता ही है, किसी में उसका पूर्ण विकास हो जाता है और किसी मे कम । जिन गुणो से मानव वस्तुत मानव कहलाता है, उस गुण-समूह को मानवता कहा जाता है । वह मानवता जब दैवी सम्पत्ति अर्थात् दिव्य गुणों की परिधि में प्रविष्ट हो जाती है तब वह मानवता दिव्य गुणो की महाज्योति बन जाती है। जब आत्मा के अनन्त-अनन्त गुण अपने आप मे नि मीम एवं असीम हो जाते है, तब वे दिव्यगुण परमात्मज्योति मे मिलकर सदा-सदा के लिए अनन्त एवं अक्षय हो जाते है, फिर कभी उन गुणों का ह्रास नही हो पाता । इसी अवस्था मे दिव्य मानवता अक्षय गुणो का सहारा लेकर अरिहन्त पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है, अत: नमस्कार के पाच पदो मे अक्षय गुणनिधान विश्व-वत्सल, विश्व-हितकर अरिहन्त भगवान् को सर्व प्रथम नमस्कार किया गया है।
कर्म-शत्रुओं के विजेता ही अरिहन्त कहलाते हैं, क्योंकि वाह्य भूमिका में जितने भी प्रपञ्च खड़े होते है उन सब में चार घाति कर्म रूप अन्त:-शत्रु ही मुख्य कारण है । जैसे कि ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म । जिन आत्म-ज्ञानियों ने चार घाति कर्मों का नमस्कार मन्त्र]
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