________________ भूमिका इतने उन्नत-उन्नत है कि दोनोंके स्तन परस्परमें सट माते हैं और भक्षित नल उनके पीच में जाते हैं। इस प्रकार उनके शरीरस्पर्शका अनुमवकर वे भात्मनिन्दा करते हैं और वे दोनों पुरुषशरीरके स्पर्श होनेसे रोमानित हो जाती है'मीलन शेकेऽभिमुखागताभ्यां धत्त मिपीब्य स्तनसा-तराभ्याम्। स्वानान्यपेतो विषगो स पवारपुमङ्गसङ्गोत्पुरके पुनस्ते॥' (6 / 21) उपजाति, वंशस्थ, वसन्ततिलका, वैतालीय, रयोदता, हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, स्रग्धरा भादि 19 छन्दों में इस ग्रन्थको रचना की गयी है। मोहर्षने इस महाकाव्यमें नलके परितका पूर्णतः वर्णन नहीं किया है, अत एव कतिपय विद्वानोंका मत है कि महाकान्यको प्रायः शतपरिमित सर्गों में ग्रन्धकारने पूरा किया होगा, किन्तु अद्यावधि इस महाकान्यमें वर्णित कथामागके भागे मोरकत कोई कयामाग नलका उपलब्ध नहीं हो सका है, अत एव नारायण भट्टके इस कथन को सत्य मानना पड़ता है कि महामारतादिमें वर्णित नलके मग्रिम चरित नीरस एवं नायकके उदयामाव वर्णन करने से रसमङ्गकारक था, मतएव सहृदयाहादोत्पादन ही कान्यका मुख्य उद्देश्य होनेसे महाकवि श्रीहर्षने इस महाकान्बमें उनके शेष परितका वर्णन नहीं किया है।' श्रीहर्षके निवासादिके सम्बन्ध में विविध मतकतिपय विद्वान् श्रीहर्षको कन्नौनके अधीश्वर अवन्तचन्द्र के राजसमापण्डित होनेसे कनौजका निवासी मानते हैं। कन्नौन (कान्यकुम्ज ) के राजाका भाश्रित होना श्रादर्षने स्वयं स्पष्ट कहा है 'ताम्बूलाबमासनं च लभते यः कान्यकुब्जेबारायः सामापुरते समाधिनु परंपर प्रमोदार्णवम् / यरकाम्यं मधुवर्षि पषितपरास्तकेषु यस्वोक्तयः / श्रीश्रीहर्षको कृतिः कृतमुदे तस्याम्युदोषादियम् // (प्रशस्ति 4) तथा कुछ विद्वान् गौडोवींशकुलप्रशस्ति तया नवसासाकरितके इनकी रचना होने एवं नैषधचरित के वर्णनके आषारसे इन्हें वङ्गदेशज मानते हैं। तथा कुछ विद्वान् श्रीहर्षकी 'करमीरैर्महिते चतुर्दषतयों विर्घा विदधनिमहाकाव्ये......(१६।१३०) उक्ति के आधारपर इन्हें कश्मीरी मानते हैं ; किन्तु राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोशके पूर्वोद्धृत वचनके आधार पर इनका काश्मीरी होना सिद्ध नहीं होता। जैसा कि पहले नहा गया है कान्यकुम्बाधीश्वर जयन्त चन्द्र के समापण्डित श्रीहर्षने 1. 'आनन्दपदेन तुष्टयेऽस्तु इत्याशिषाच अन्यसमाप्ति द्योतयति। महाभारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसस्वानायकानुदपवर्णनेन रसमासदावार काव्यस्य च सहदयाहादनफलत्वाचात्रोत्तरचरित्रं श्रीहर्षेण न वर्णितमित्यादि ज्ञातम्यम् / (221148 प्रकाशन्याख्या)