________________ 24 भूमिका वर्णनका प्रसङ्ग आया है, किन्तु पाठकको समस्त वर्णन सर्वथा नूतन एवं महत्वपूर्ण ही प्रतीत होता है। महाकवि द्वारा स्थान-स्थानपर 'बहुल, अमा, पञ्चास्य, द्विजराज' आदि शब्दों का नया नया अर्थ करना उनकी परिष्कृत बुद्धिका विशद दिग्दर्शन है।' रसादिनिरूपणइस नैषधचरितमें प्रधानतया शृङ्गाररसका तथा गौणतया अन्यरसों का वर्णन है। शृङ्गाररसमें भी विप्रसम्म शृङ्गार तथा सम्मोग शृङ्गार-दोनों ही का पर्याप्त मात्रामें वर्णन किया गया है। पात्रात्यादि रीतियों में से इस ग्रन्थमें वैदीरीतिका प्राधान्य है। इस बात का महाकवि हर्षने स्वयं स्पष्ट सङ्केत किया है 'धन्यासि वैदर्भि ! गुणैरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति // (3 / 11 / 16) 'गुणानामास्थानी नृपतिलक ! नारीति विदितां रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः। जवित्री वैदर्भीमधिकमधिकष्टं रचयितुं परीरम्मक्रीडाचरणशरणामन्वहमहम् / / ' (14 / 88) अलङ्कारों में श्लेष यथा अनुप्रासालंकारों को सर्वत्र मारमार है, इनके अतिरिक्त अर्थान्तरन्यास, उपमा, दृष्टान्त, निदर्शना भादि अलङ्कार भी विविध स्थलों में मिलते हैं / अतिशयोक्ति वर्णनमें तो श्रीहर्षने कमाल कर दिया है। कामपीडिता विरहिणी दमयन्तीके विरहावस्थाका वर्णन करते श्रीहर्ष कहते हैं कि-कामाग्निसे दीपित दमयन्तीने बहुत-से ताजे कमलों को हृदयपर रखने के लिये पुनः पुनः ग्रहण किया, किन्तु हृदय तक पहुंचने के पूर्व हो उष्णतम श्वाससे मर्मर ( अधसुखे) हुए उनको आधे मार्गसे ही वापस फेंक दिया 'स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम्। श्रयितुमर्द्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् // ' ( 4 / 29) नल इन्द्रादिके दूत बनकर भीमकन्याके अन्तःपुरमें अलक्षित हो पहुँच गये हैं। वहाँ पर नलकी छायाको मणिकुट्टिमादिमें देखकर दो सखियां दोनों ओर से बाह फैलाई गई उन्हें पकड़ने के लिए आती हैं, किन्तु वे उन्हें पकड़ नहीं पा रही हैं क्योंकि उन दोनोंके स्तन 1. 'विरहिभिर्बहु मानमवापि यः स बहुलः खलु पक्ष इहाजनि / तदमितिः सकलैरपि यत्र तय॑रचि सा च तिथिः किममा कृता / ' 'मोहाप देवाप्सरसां विमुक्तास्तराः शराः पुष्पशरेण शके। पञ्चास्यवस्पशशरस्य नाम्नि प्रपञ्चवाची खलु पञ्चशब्दः॥' 'सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय वधाय विनिर्मितः। विरहिणीगणचर्वणसाधनं विधुरतो द्विजराज इति श्रुतिः॥' (क्रमशः 4 / 67, 22 / 19, 4172)