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मुहूर्तराज ]
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यात्रा विवाहदि कृत्यों में भवृत्तीय लग्न का प्रयोग करने से हमारे धर्मकृत्यों पर कुठाराघात हो रहा है अतः (भवृत्तीय लग्न का) यात्रा विवाहादि कृत्यों में बहिष्कार कर उसी प्राचीन आर्ष लग्न का प्रयोग प्रारम्भ करेंगे तभी ज्यौतिष शास्त्र की रक्षा होगी।
हमारे देश के महर्षियों ने दोनों लग्नों से दोनों प्रकार के (पूर्वोक्त) सूर्यग्रहणादि साधन में (दृष्ट) तथा जन्मयात्राविवाहादि में (अदृष्ट) कार्यों को करने का आदेश दिया है। परञ्च कालान्तर में भारत पर यवनाधिपत्य से हमारे ज्ञान-विज्ञान के साहित्य में ह्रास का बीजारोपण होने से ज्योतिः सिद्धान्तग्रन्थ रचयिताओं में तथा परम्परावश तदध्येताओं में प्रमादपूर्ण त्रुटियाँ आने लगी, इसका प्रमाण स्वस्वदेशोदय सिद्ध लग्न का दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों कार्यों में ग्रहण करना ही है। इस त्रुटि की ओर सर्वप्रथम हमारा ध्यान श्रीकमलाकर भट्ट ने आकर्षित करते हुए लिखा है"महर्षिभिः स्वीयकृतौ निरुक्ता, लग्नांशतुल्या रविसंख्यका ये ।।
भावाः सभा एव सदा फलार्थ, ग्राह्यास्त एवं ग्रहगोलविद्भिः ॥ मुन्युक्तभावात्परतोऽपि पूर्व तिथ्यंशकैस्तस्य फलं निरुक्तम् ।
लोकेषु मूर्योदर पूरणार्थ मूर्विलग्नाद् रविसंख्यका ये "भावा निरुक्ता स्वधिया त्वनार्षाः सम्यक् फलार्थ नहि तेऽवगम्याः ॥
अर्थात् महर्षियों ने स्वस्वग्रन्थों में लग्न के अंशतुल्य (लग्नराश्यादि में १-१ राशि जोड़कर) अंशवाले उदयमान से जो द्वादशभावों का साधन किया है ग्रहगोलज्ञाताओं द्वारा अदृष्ट फल ज्ञानार्थ सदा उन्हीं भावों को ग्रहण करना चाहिए। उन मुनियों द्वारा कहे हुए भावों से १५ अंश पूर्व से तथा १५ अंश आगे तक (पूरे ३० अंशों के भीतर) उस भाव का फल कहा गया है। किन्तु मूों ने अपने सदृश अन्य मूों की उदरपूर्त्यर्थ स्वस्वोदयसिद्ध = अनार्ष, जो द्वादश भावों की कल्पना की है उन भावों को अदृष्ट फलकथन में कभी भी उपयुक्त नहीं मानना चाहिए।" ___ उक्तोद्धरण में कथित “समानांशीय द्वादशभाव” भबिम्बीय लग्न से ही संभव हैं भवृत्तीय से नहीं, यह बात यदि गम्भीरतापूर्वक विचारी जाय तो स्वयमेव ज्ञात हो जाती है। किन्तु श्रीकमलाकर भट्ट के द्वारा इस तथ्योद्घाटन के बाद भी स्वस्वोदयसिद्ध भावों द्वारा ही यात्राविवाहादिसम्बन्ध फलकथन किया जाता है जिसमें सहस्रशः दोष आते हैं। मैं यहाँ केवल एक उदाहरण द्वारा प्रचलित अनार्ष लग्न से फलितग्रन्थों में कतिपय दोषों का दिग्दर्शन कराता हूँ___ यथा- जैमिनि-पराशरादि महर्षियों ने जन्म, यात्रा, विवाहादि के लिए भूकेन्द्रीय दृष्टिवश लग्नादि द्वादशभावों का साधन करके त्रिकोण भावेशों को शुभप्रद और द्वितीय सप्तमभावेशों को मारकेश (मरणकारकें) बताया है। अष्टमभाव को (मृत्यु) और नवमभाव को “धर्म या भाग्य” स्थान कहा है। इसलिए सभी ने (भारतीय महर्षि आचार्य एवं यवनाचार्य आदिकों ने भी) मेष लग्न में जन्म लेने वालों के लिए मंगल को लग्नेश, सूर्य को पञ्चमेश और गुरु को नवमेश (धर्मेश) होने के कारण नित्य सर्वत्र शुभप्रद कथा शुक्र को द्वितीयेश और सप्तमेश होने के कारण मारकेश बताया है। वृषलग्न वालों के लिए धर्मेश कर्मेश होने के कारण शनि को राजयोग कारक कहा है। मिथुन लग्न वालों के लिए बुध को लग्नेश तथा सुखेश होने से शुभद बताया है। बृहत्पाराशरादि आर्षग्रन्थों या यवन जातकादि ग्रन्थों में कर्क लग्न वालों के लिए लग्नेश
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