________________
मुहूर्तराज ]
तथा च
श्रीमद्रराजेन्द्रसूरे र्निखिलगुरुगुणख्यात भूर्तेः कृपाभिः, ज्योतिर्ग्रन्थाब्धिभध्यान्मणिरिव विहितश्चैष "मौहूर्तराजः " । षट्सप्ताङ्केन्दुवर्षे जगति गुणवरे वागराख्ये पुरे श्रीपञ्चभ्यां ज्ञानदात्र्यां मुनिविजययुतैः श्रीगुलाबैः प्रमोदैः 11
शश्वच्छास्त्रविवादभग्नसुधियस्तुल्यस्य वाचस्पतेः तत्पद्दे धनचन्द्रसूरिसुगुरोः राज्येऽकरोत् संग्रहम् । दैवज्ञोऽध्ययनेन चास्य सुकृती स्याद्विश्वसत्कीर्तिभाक् काऽप्यस्मिन् यदशुद्धिजं किल भवेत्तच्छोधनीयं बुधैः ।
"
प्रस्तुत संकलन में शुभाशुभ, लग्नशुद्धि, आवश्यकमुहूर्त, वास्तुनिर्माण एवं वास्तुप्रवेश नामक ५ प्रकरण हैं, जिनमें अतीवोपयोगी ज्योतिःसम्बन्धी बिन्दुओं का विवेचन है तथा अनेक महामनीषी त्रिकालदर्शी महर्षियों द्वारा उक्त सिद्धान्तवचनों का प्रसंगोपात्त उल्लेख संग्रहीत किया गया है।
[ १३
१. शुभाशुभ प्रकरण
प्रथम शुभाशुभ नामक प्रकरण में मङ्गलाचरणोंपरान्त शालिवाहन शकोपरि विक्रम संवत् ज्ञानोपाय, सूर्यसंक्रान्तिवशाद् उसकी उत्तरायण व दक्षिणायन प्रवृत्ति क्षयाधिक एवं मलमास, नियतसमय के कृत्यों में मलमास, गुरुशुक्रादि अस्ततादोष की अमान्यता, त्रयोदशदिवसीय पक्ष में शुभकृत्यनिषेध, तिथियों की नन्दादिसंज्ञाएँ, दग्धादितिथियाँ, तिथियों के स्वामी, क्षय एवं वृद्धि तिथि के लक्षण, वार- ज्ञान एवं तत्प्रवृत्तिसमय, शुभाशुभवारों में करणीय कृत्य, फलसहित कालहोराएँ (क्षणवार) वार वेला, वारानुसार छायालग्न, नक्षत्रपरिचय, उनके स्वामी व उनकी ध्रुव चरादिक संज्ञाएँ, पंचकावधि एवं तत्फल, पुष्य नक्षत्र की दीक्षा एवं विवाहातिरिक्त कृत्यों में सर्वोत्तमता, राशि स्वामी, वैवाहिक मुहूर्त में प्रयोज्य अष्टकूटादि, विष्कुंभादि २७ योग, आनन्दादियोग, अमृतसिद्धि तथा सर्वार्थसिद्धयादि सुयोग, कुलिकादि कुयोग, सिद्धियोगों की भी कार्य विशेष में हेयता, सर्वदोषनाशक व सर्वसिद्धिदायक रवियोग, चन्द्रगोचरताविचार, शनि एवं गुरु के पाद (पाये) विचार, भद्रानिर्णय, उसकी स्वर्गादिनिवासत्वेन एवं पूर्वार्धपरार्धस्थिति से उपादेयता एवं सामान्यस्थिति में हेयता, गुरुशुक्रास्त में • वर्ज्य कृत्य, उनके अस्तत्वदोष का परिहार, होलाष्टक, देशविशेष में उसकी मान्यता अतः दोषावहता तथा उसका परिहार, विवाह में हेय लत्ता पातादि दश दोष विवेचन आदि अतीवोपयोगी जनजीवन में अतीव विचारणीय बिन्दुओं का सविवेचन समावेश है। स्थान-स्थान पर विषय की प्रामाणिकता सिद्धि व पुष्टि हेतु वसिष्ठ, नारद, गर्ग, लल्ल आदि ज्योतिर्वेत्ता महर्षियों के वचनों का भी निवेश किया जिससे विषय अत्यन्त स्पष्ट, मनोहर एवं प्रभावोत्पादक तथा सुग्राह्य बन गया है।
Jain Education International
लग्न शुद्धि
इसी द्वितीय प्रकरण में लग्न पत्र के अवलम्बन से सूर्यराश्यंशानुसार स्थूल लग्नानयन विधि, नवांश साधन, राशिसम्बद्ध द्वादशभाव, भावों की केन्द्रादि संज्ञाएँ, ग्रहों की उच्च नीच राशियाँ, उनका प्रयोजन,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org