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[ मुहूर्तराज ___ “मुहूर्त ज्यौतिष" के मूलस्रोत सिद्धान्त स्कन्ध से अनुप्राणित संहिता व होरा स्कन्ध ही हैं। उनमें निहित सूत्रों का विस्तार हमें ज्यौतिष के मुहूर्त सम्बन्धी मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त दीपक, मुहूर्त मार्तण्ड एवं मुहूर्त चिन्तामणि जैसे अनेक शीर्षस्थानीय एवं प्रामाणिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों में पञ्चाङ्गों की विवेचना, उनकी शुभाशुभता, उनके पारस्परिक संयोग से उत्पन्न सुयोग एवं सुयोग जातकों के समस्त संस्कार, वास्तुनिर्माण एवं उनमें प्रवेश प्रासादनिर्माण एवं देव प्रतिष्ठा तथा वापी, कूप, तडागादि खनन एवं सेतुबन्धादि मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों के हेतु मुहूर्तों का प्रतिपादन किया गया है। ये समस्त तथा अन्य भी कई एक मुहूर्त ज्यौतिष विषय के प्रशस्त ग्रन्थ हमें उपोदय मौहूर्तिक क्षणों को ज्ञात कराने के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। ये सभी ग्रन्थ अपने आप में सम्पूर्ण हैं और चिरन्तन काल से जिस प्रकार मुहूर्तों के विषय में मानव समाज का जैसा मार्गनिर्देश करते आए हैं, वह सर्वविदित ही है।
मुहूर्तविषयक कई ग्रन्थ संस्कृत में, कई प्राकृत में, कई हिन्दी में तथा कई एक अन्यान्य प्रदेशों की भाषाओं में लिखित तथा संकलित किए गए हैं, और अद्यावधि निरन्तर अबाधगति से उत्तरोत्तर प्रणीत किए जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में ज्योतिर्विदों की जागरूकता तथा उनके सत्प्रयास स्ततियोग्य हैं।
श्री जैनधर्म में दीक्षित मुनिवरों, आचार्यों की भी अनेक विषयों में पारंगामिता, उनमें गहन, मनन एवं निदिध्यासन पूर्वक उन विषयों से सम्बन्ध ग्रन्थों के प्रणयन के प्रथित कृत्य को कौन नहीं जानता? जिस प्रकार उन्होंने व्याकरण, न्याय, दर्शन एवं धर्मसम्बधी ग्रन्थ लिखे हैं उसी प्रकार ज्यौतिषविषय में भी उनकी चमत्कारिणी प्रतिभा का वैभव ज्योतिर्ग्रन्थलेखन रूप में समाज में जनजन से अविदित नहीं है। ऐसा कोई भी विषय नहीं जो जैनमुनिवरों एवं आचार्यों की सक्षम लेखनी के आश्चर्यजनक प्रभाव से याथातथ्यपूर्ण विवरण लिपिबद्ध होने से अछूता रहा हो।
प्रस्तुत “मुहूर्तराज" संगृहीत ग्रन्थ भी ऐसे ही एक ज्योतिर्मर्मज्ञ, महामनीषी प्रतिभाशाली एवं तपोमूर्ति श्री गुलाबविजयजी महाराज का सर्वाङ्गीण पूर्ण संकलन है, जिसमें मुनिवर ने अनेक प्राचीन व अर्वाचीन ज्योतिष के ३१ ग्रन्थों का गहन अध्ययन एवं अनुशीलन करके मानव जीवन के उपयोगी ज्योतिःसम्बन्धी ज्ञातव्य पदार्थों, तथा जन जीवन के प्रसंगोपात्त विविध मुहूर्तों के क्षणों का उल्लेखनीय समावेश किया है।
एतद्ग्रन्थ संकलनकर्ता श्री मुनिवर गुलाबविजयजी, श्री कलिकालसर्वज्ञ, अनेक धर्म व अन्य विषयक ग्रन्थों के प्रणेता, अभिधानराजेन्द्रकोष सदृश मूर्धन्य कोश के रचयिता, श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय क्रियोद्धारक, विद्वच्छिरोमणि, जैनागमतत्त्ववेत्ता, महातपस्वी एवं महामनीषी, प्राणिमात्र के लिए करुणावरुणालय, प्रातःस्मरणीय १००८ श्री प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजश्री के अन्तेवासी थे, तथा इन्होंने श्री चर्चाचक्रवर्ती, वादिभाजित्वर सिद्धवाक् १०८ श्री धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की थी। इनकी नवनवोन्मेषिणी तथा प्रकाण्ड विद्धत्ता एवं व्याखानचातुरी के कारण इन्हें “वाचक” उपाधि से विभूषित किया गया था। इन्होंने अपने गुरुवर श्री धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शासनकाल में इस ग्रन्थ का संकलन किया और इसकी पूर्णता जालोर मण्डलान्तर्गत वागरा नामक नगर में वि.सं. १९७६ के चातुर्मास की ज्ञानदात्री तिथि (कार्तिक शुक्ल ५) को की जैसा कि इस ग्रन्थ के अन्त में उनके स्वयं के द्वारा लिखित प्रशस्तिपद्यों से स्पष्ट होता है।
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