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[ मुहूर्तराज ___ इसी सिद्धान्तस्कन्धोक्त गणित के आधार पर किसी भी इष्ट समय के लग्न बिन्दु से तात्कालिक ग्रहों की विभिन्न स्थितियों के फलस्वरूप संसार के समस्त प्राणियों के विशेषकर मानवी सृष्टि में उत्पन्न जातकों के शुभाशुभ भविष्य ज्ञान की भूमिका में बुद्धि की स्वतः प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है और इसी कारण से ज्यौतिष के अवशिष्ट संहिता एवं होरा स्कन्धों में फलादेश की अनेक पद्धतियाँ जन्मीं पनपी और अद्यावधि निरन्तर नवप्रणीत ज्यौतिष के कई ग्रन्थों में उद्भुत एवं पल्लवित होती हुई दृष्टिगोचर हो रही हैं।
जातक शुभाशुभ, प्रश्न, नष्टजातक, पञ्चाङ्ग, मुहूर्त, स्वप्न, शकुन स्वर एवं सामुद्रिक आदि अनिकानेक फलादेश पद्धतियाँ विश्व में विकसित हुई और आज तक विविध रूपों में विज्ञान के साथ समन्वय करती हुईं अन्यान्य फलादेश पद्धतियाँ भी प्रणीत एवं परिवर्द्धित की जा रही हैं जिनमें विश्व के समस्त मानवों की रुचि एवं आस्था है।
उपरि प्रदर्शित फलादेश पद्धतियों में "मुहूर्त ज्यौतिष" हमारा प्रकृत विषय है। इस पर किञ्चित् लिखने के पूर्व ज्योतिःप्रासाद में प्रवेशार्थ जो मुख्यद्वारभूत है, उस “पञ्चाङ्ग ज्यौतिष" पद्धति के विषय में संक्षेपतः विचार करना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि मुहूर्तज्ञात करने के लिए ‘पञ्चाङ्ग' ही मुख्य उपकरण है।
“पञ्चाङ्ग" इस शब्द में ही स्पष्टरूपेण उन पाँच अंगों का निर्देश है, जिन्हें तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण इन नामों से जाना जाता है। आकाशमण्डल में सूर्यादि ग्रह व असंख्य ताराएँ हैं। इन ताराओं में अश्विन्यादि रेवती पर्यन्त २७ ताराओं का इतर नाम नक्षत्र भी है। ये नक्षत्र आकाशमण्डल में नियतरूपेण चार करते हैं, फिर भी इनके अपने-अपने स्थान नियत हैं। इन्हीं नक्षत्रों के बारह भाग १२ राशियाँ हैं जो मेषादि मीनान्त हैं। चूंकि नक्षत्र २७ हैं और उनसे राशियाँ १२ बनती हैं, अतः एक राशि २७ / १२ = २८ अर्थात् सवा दो (२।) नक्षत्रों की होती है। एक नक्षत्र के चार चरण (पाये) माने गए हैं जो (चु, चे, चो, ला) इस प्रकार अक्षरात्मक हैं, अतः एक १ राशि में या २- नक्षत्रों में २-४ ४ = ९ चरण होते हैं। एक राशि के तीस अंश हैं। एक अंश के साठवें भाग को कला, कला के साठवें भाग को विकला
और इसके भी साठवें भाग को प्रतिविकला संज्ञा से व्यवहत किया गया है। तिथि___ इन्हीं नक्षत्रों पर सूर्यादि केतुपर्यन्त प्राचीन ज्योतिषशास्त्रोक्त नौ एवं नेप्च्यून, हर्षल, आदि नवीन गवेषित ग्रहों का यथावत् समयानुकूल संक्रमण होता रहता है। इन सभी ग्रहों में सूर्य एवं चन्द्र दो मुख्य हैं ये दोनों जब स्वस्वगतिवशात् चार करते हुए एक ही राशि पर आते हैं और जब तक ये दोनों लगभग २४ घंटों तक एक ही राशिखण्ड पर होते हैं उतने काल का नाम 'अमावस्या' तिथि है। ततः चन्द्रमा पृथ्वी का परिक्रमण करता हुआ सूर्य से १२-१२ अंशात्मकसमय दूर होता जाता है वैसे-वैसे शुक्ल प्रतिपदादि तिथियाँ बनती हैं। वस्तुतस्तु सूर्य चन्द्र के अन्तर को ही 'तिथि' कहा गया है। सूर्य चन्द्र का यह तिथिविधायक अन्तर अधिकाधिक ६५ घटिकात्मक (लगभग) एवं न्यूनाति न्यून लगभग ५५ घटिकात्मक होता है, परन्तु अन्तर का मध्यममान ६० घटिकात्मक है।
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