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परिचय
त्रेसठ महापुरुषोंपर कार्यं
सठ महापुरुषोंपर प्रकाशित सबसे प्राचीन महापुराण, अथवा अधिक सही नाम आदिपुराण है जो जिनसेन द्वारा रचित । (880-875 A. D ) जिनसेनने अपनी रचनाको " त्रिषष्टि लक्षण महापुराण संग्रह " कहा है और इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण महापुराणकी योजना बनायी होगी परन्तु किसी प्रकार वह इसे पूरा नहीं कर सके, सम्भवतः अपनी मृत्युके कारण। उनके द्वारा रचित आदिपुराणके कुल 42 पर्व हैं, बाकी बचे हुए पाँच पर्व तथा समूचा उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्रने 820 शक संवत् ( 898 ) में पूरा किया, बंकपुरा में, लोकादित्य के संरक्षण में । लोकादित्य, अकालवर्ष एलियाज़ कृष्ण II का ( 880-914 ई. सं. ) सामन्त था। यह महापुराण संस्कृतमें लिखित है, और जो दो बार प्रकाशित हुआ । पहला कोल्हापुर में कल्लप्पा नितवे मराठी अनुवादके साथ, दूसरी बार इन्दौर से हिन्दी अनुवादके साथ ( अनुवादक पं. लालाराम जैन ) । यह दिगम्बर जैनोंके दृष्टिकोण से लिखित है । दूसरा ज्ञात महापुराण इस विषयपर यह है । और यह भी दिगम्बर जैन दृष्टिकोण से लिखा गया है । तीसरा महापुराण है 'त्रिषष्टि लक्षण पुरुष चरित' जो हेमचन्द्र द्वारा लिखित है । यह श्वेताम्बर महापुराण है और संस्कृतमें लिखित है । यह हेमचन्द्रकी रचनाओं में अन्तिम है । इसलिए यह 1170-72 के बीच लिखा गया होगा। यह जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा 1905 में प्रकाशित हुआ और इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। 1965 में प्रकाशित जैन ग्रन्थावली में ( 1907-8 ) में तीन महापुराणों के नाम हैं ( पृ. 229 ) उनमें पहला शीलाचार्यका है ( 888 A. D. ), यह प्राकृतमें लिखित है और इसकी पाण्डुलिपियाँ प्रसिद्ध पाटन भण्डारमें सुरक्षित हैं, ऐसा कहा जाता है । इसको सं. 4 है और जैसलमेर भण्डारमें है । इस महापुराणमें ही यह उल्लेख है कि इस विषय पर दूसरा प्राकृत महापुराण अमरसूरि द्वारा लिखित है On the authority of बृहत् टिप्पणिका । यह तीसरे महापुराणका उल्लेख करती है जो संस्कृत में है, जो मेरुतुंगको थीमपर है । इसको पाण्डुलिपियाँ अमरपाटन और अहमदाबादमें सुरक्षित हैं ।
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पाठक देखेंगे कि मुद्रित ग्रन्थके नीचे का हिस्सा दो भागों में विभक्त है । पहले भागको एक लकीर के द्वारा मूल ग्रन्थसे अलग कर दिया गया है । इसमें पाठान्तर हैं और प्रभाचन्द्र की टिप्पणियाँ हैं । दूसरा भाग पहले भाग से अलग है, उसमें संस्कृत में मूल ग्रन्थके सरल पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं जिन्हें मैंने जी. के. एम. और पी. पाण्डुलिपियोंके किनारोंपर लिखी गयी टिप्पणियों और प्रभाचन्द्रके टिप्पणोंसे चुना है । सरल पर्यायवाची शब्दोंके इस चयनमें मैंने इस बातका ध्यान रखा है कि मूल सम्पादित ग्रन्थको पढ़ते समय पाठकोंको क्या कठिनाइयाँ आ सकती हैं। मुझे आशा है कि यदि पाठकको संस्कृत भाषा और साहित्यका अच्छा ज्ञान है, तथा उसे प्राकृत व्याकरण और अपभ्रंशका मामूली ज्ञान है तो इन पर्यायवाची शब्दोंकी सहायतासे वह आसानीसे मूल पाठको समझ सकता है । जहाँ प्रभाचन्द्र के टिप्पणोंका सारभूत अंश रुचिकारक मालूम होनेके बजाय विस्तृत प्रतीत हुए उन्हें टिप्पणियोंके रूपमें अन्त में दे दिया गया है । मैं आशा करता हूँ पृष्ठके नीचे सरल पर्यायवाची शब्दोंको देनेकी यह पद्धति पाठकोंके द्वारा सराही जायेगी क्योंकि इससे उन्हें कम श्रम होगा, और मुझे इस जिल्दका विस्तार कम करने में सहायता मिलेगी । यह ध्यान में रखना चाहिए कि मैंने पर्यायवाची शब्दोंके पाठको नहीं छुआ है, बल्कि उसको उसी रूपमें सुरक्षित रखा है, जिस रूप में वह पाण्डुलिपियों में उपलब्ध है । यद्यपि कई बार मुझे इस बातका प्रलोभन हुआ है कि मैं अधकचरे प्राकृत प्रयोगों और अनावश्यक ऐतिहासिक उल्लेखोंको सुधारूं, ( उदाहरण के लिए देखिए पृष्ठ 8 कइवइ विहियसेउका सरल पर्यायवाची ) ।
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