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परिचय
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तो हमें वह कल्पना करनी पड़ती है कि या तो उसके दो बड़े भाई मर चुके थे या फिर उसमें कोई विशेष योग्यता थी कि जिससे उसने अपने दो बड़े भाइयों को वरिष्ठताका अतिक्रमण किया और वह पिताकी जगह मन्त्री बना ।
पुष्पदन्त के अनुसार भरतका रंग साँवला था, परन्तु आकृति सुन्दर थी और वह प्रेम के देवताके समान था । वह कृष्ण III के समय सेनापति थे । उनका स्वास्थ्य अच्छा था । वह दान और राजकीय भवनके मन्त्री थे। उनकी वेशभूषा सुन्दर थी, आदतें सुसंस्कृत थीं। वह विद्याव्यसनी थे। उनका चरित्र पवित्र था। उनमें अगणित गुण थे और अगणित उदारता थी ।
महाकवि पुष्पदन्त ब्राह्मण परिवारके थे। इनका गोत्र कश्यप था। पिताका नाम केशव और माताका मुग्धादेवी। ये दोनों शिवके भक्त थे। बाद में उन्होंने जैनधर्म ग्रहण कर लिया। उनका रंग काला और शरीर दुबला-पतला था। शायद वह अविवाहित थे। वह अत्यन्त गरीब थे, उनके पास घर-जायदाद कुछ भी नहीं था। फिर भी उनकी प्रतिभा दिव्य थी। वह पहले किसी चैव राजा ( भैरव या वीर राजा ) के दरबारनें थे, और सम्भवतः उन्होंने उनपर कविता लिखी थी, परन्तु वहाँ उनका अपमान हुआ और वह मान्यखेट चले आये, आधुनिक मलखेड़ा, जो उस समय राष्ट्रकूटोंकी राजधानी थी, और बहुत उन्नत थी। यहाँ वह नगरके बाहर वृक्षोंके उद्यानमें रहे। इन्द्रराज और नागया दो विद्वान्ने उन्हें मनाया और भरतके पास चलनेका अनुरोध किया। उन्हें यह आश्वासन दिया गया कि भरत बहुत शालीन व्यक्ति है। कुछ दिन ठहरने के बाद भरतने महाकविसे काव्यरचना करनेकी प्रार्थना की। पहले तो उसने अपनी अनिच्छा व्यक्त की परन्तु बादमें उसने भरतका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि भरतके अनुसार इसीमें उसकी काव्यप्रतिभाका उपयोग था । उसने सिद्धार्थ वर्ष (959 A D ) में भरतके घरमें काव्यरचना शुरू की। आदिपुराणकी रचना करनेके बाद कविका मन उचाट हो गया। लेकिन उसे सपने में सरस्वती दिखी और उसने काव्यरचनाकी प्रेरणा दी । तब कविने अपना काव्य पूरा किया। इस कार्यके सम्पादनसे कविको सन्तोष और गर्व दोनों थे। जैसा कि उसकी निम्नलिखित पंक्तियोंसे स्पष्ट है
अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिरछन्दसां अर्थालंकृतयो रसाच विविधास्तस्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेशपुष्पदमनी सिद्धं ययोरीदृशम् ।
यह वही भाव है जिसमें व्यासने कहा था
"यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्"
कवि
इसलिए यह महापुराण जैनोंके लिए उतना ही पवित्र है जितना हिन्दुओंके लिए महाभारत महापुराणको पूर्ण करनेका श्रेय एक ओर अपनी प्रतिभाको और दूसरी ओर भरतको उदारताको देता है। जिस तरह उसका यश दूर-दूर तक फैला उसी प्रकार भरतकी उदारता भी दूर-दूर प्रसिद्ध हो गयी। ऐसा अनुमान है कि महापुराण समाप्त होनेके तीन वर्षके भीतर भरतका निधन हो गया। भरतके स्थानपर नन्न उत्तराधिकारी बना और उसने महाकविको आश्रय प्रदान किया, तथा अपभ्रंशमें और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कविने जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउकी रचना की । उसके बाद राष्ट्रकूटोंके गौरवका अन्त हो गया कि जब 972 में मान्यखेट धारानरेश द्वारा लूट लिया गया, और कवि आश्रयविहीन होकर कहता है, क्वेदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः । ( 36 )
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