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परिचय
परम्पराके विचारसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए भी क्योंकि इससे कविके आश्रयदाता भरतसे सम्बन्ध और दूसरे सम्बद्ध प्रकरणोंपर प्रकाश पड़ता है। मैंने इन पाण्डुलिपियोंका विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया है:
(1) वे प्रशस्तियाँ जो 'जी' और 'के' प्रतियों में हैं। (2) जो आदिपुराणकी दूसरी प्रतियोंमें हैं। (3) वे जो पुणे, कारंजा और उत्तरपुराण ( के ) में हैं। ( 4 ) वे जो केवल जयपुरकी प्रतिमें हैं । इसी क्रममें मैंने क्रमांक दिया है जिससे कि आगेके विभागोंमें सुविधासे सन्दर्भ दिया जा सके । (a ) 1. (i) आदित्य........
इस छन्दमें भरतके यशका वर्णन है, जो कविका मित्र और आश्रयदाता है। कविका कहना है कि भरत और उसका यश समूचे विश्व में व्याप्त है। यह प्रशस्ति तीसरी सन्धिके प्रारम्भ में है, 'जी' और 'के' प्रतियोंमें, परन्तु बाकी दूसरी पाण्डुलिपियोंके दूसरी सन्धियोंमें है ।
2. (ii) सौभाग्यं...
यह छन्द भरतकी कुछ विशेषताओंका वर्णन करता है। यह 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंकी चौथी सन्धिके प्रारम्भमें है।
3. ( i ) भ्रू लीला....
इसमें कविता है कि भरत इसलिए भी गुणी है कि वह कभी दूसरेकी पत्नीके विषयमें नहीं सोचता, यह 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंकी पांचवीं सन्धिके प्रारम्भमें पाया जाता है।
4. ( iv) एको दिव्य....
इसमें कवि और उसके आश्रयदाता भरतकी विशेषताओंका उल्लेख है। यह 'जी' और 'के' आठवीं सन्धिमें है, जब कि दूसरी पाण्डुलिपियों में नौवीं सन्धिके अन्तमें है।
5. (v) जगं रम्म.... इस छन्दमें कवि स्वयंको ईश्वर बताता है । राजा होते हुए भी उसके चित्तमें उदारता है । 6. (vi) स्पष्ट है 7. (vii ) स्पष्ट है 8. ( viii ) स्पष्ट है।
छन्द viii यह अंकित करता है कि यह आश्चर्यकी बात है जो कीर्ति हर घर भ्रमण करती है और चारणोंके साथ स्वेच्छासे रहती है, वह अब भी भरतको वल्लभा है। यह छन्द 'जी' प्रतिके साथ दूसरी सब प्रतियोंमें है। परन्तु 'के' में नहीं है। इस प्रकार 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंमें असमानताका यह अभाव मेरी इस स्थापनाको दृढ़ करती है कि उक्त प्रशस्तियाँ महापुराणको अनिवार्य अंग नहीं हैं। फिर भी बादमें कविने इसकी रचना की है। 'जी' और 'के' प्रतियोंमें प्रशस्तियोंके स्थानको लेकर जो एकरूपता और समानता है उससे मेरी इस धारणाको बल मिलता है कि वे एक वर्गकी हैं । दूसरे वर्गों में प्रशस्तिकी संख्या अधिक
(b) 9.(i)
10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, 25, 26, 27, 28, 29, 30, 31, 32, 33, 34, 35, 36, 37, 38, 39, 40, 41, 42, 43, 44, 45, 46,47, 48 प्रशस्तियोंकी टिप्पणियाँ स्पष्ट हैं।
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