________________
गाथा ३२ ]
लब्धिसार
[२७
इन्हीं शरीरोंके बन्धन और संघात, छहसंस्थान, आहारकशरीरांगोपांगके बिना दो अङ्गोपाङ्ग, छहसंहनन, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, चारोंमानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, प्रस-स्थावगदि १० युगल
और निर्माण ये प्रकृतियां सत्कर्मरूप हैं। गोत्रकर्मकी नीच-उच्चगोत्ररूप दो प्रकृतियां सरकर्मरूप है, सम्मा अन्तरक की जांगों का सत्कर्मरूप हैं । इन प्रकृतियोंका प्रकृतिसत्कर्म है; शेष प्रकृतियोंका नहीं है।
शंका-पहल उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरवा बन्धकरके पुनः मिथ्यात्व में जाकर नत्यायोग्य पाल्यक. आमच्यातव भागप्रमाण पालक 11 आशगसम्यक्त्वा प्राप्त हानवान्न जीवके श्राहारक दिकका सत्कर्म यहां क्यों नहीं उपलब्ध होता?
समाधान-आहारका द्विवका सत्कर्म उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि याहारकशरीरको उलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नहीं होती । वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीरका उद्घ लनाकाल स्तोक है ऐसा परमागम का उपदेश है ।
अथानन्तर सत्कर्मप्रकृतियोंके स्थितिआदि सत्कर्मके कथन पूर्वक प्रायोग्यतालयिका उपसंहार करते हैं...
अजहरणमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥
अर्थ--उक्त सत्त्वप्रकृतियोंका स्थितित्रिक (स्थिति-अनुभाग-प्रदेश) अजघन्यनयाद होता है । बन्धादि (वन्व-उदय-उदीरत्पा) प्रत्येकमें इसीप्रकार प्रकृतिचतुक ::.. | यति-अनुभाग-प्रदेश) निगा लेना चाहिए ।
विशेषार्थ-आयुकर्मके अतिरिक्त इन्हीं उक्त प्रकृतियोंका स्थिति-सत्कर्म अंतःकोड़ाबाड़ीसागर जाना है। लायुकर्मका तत्यायोग्य स्थितिसत्कर्म होता है । पाचशानावरण, नौदर्शनावरणा, असानावेदनीय, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नवनोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रियादि चारजाति, पांचसंस्थान, पांचसंहनन, अप्रशस्तवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त
१. ज. प. पु. १२ पृ. २०७-२०८-२०६ । गो. क. गाथा ६१४-१५ ।