Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा १११ ]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा
दम्म उसे होदित्ति पदुप्पायणङ्कं तस्स तदवत्थाए लेस्साविसेसावहारणङ्कं च आगया । तं जहा – ' - 'मिच्छत्तवेदणीए कम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते' एवं भणिदे मिच्छत्तपरिणामो वेदिज्जदि जस्स कम्मस्स उदएण तं कम्मं मिच्छत्तवेदणीयमिदि भण्णदे | तम्मि ओवट्टिदे सव्वसंकमेण संछुद्धे संते तत्तो पहुडि दंसणमोहक्खवणापट्टवगववएस मेसो लहदित्ति भणिदं होदि । तं पुण ओवट्टिदुण कत्थ संछुहदिति भणिदे 'सम्मत्ते' सम्मत्तस्सुवरि संछुहदि ति णिद्दिवं । णेदं घडदे मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं सव्वमोवण सम्मत्ते संपक्खिवदित्ति । किं कारणं ? मिच्छत्तमोवट्टिय सम्मामिच्छत्तम्मि संपक्खिविय पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते संछुहदि ि नियमदंसणादो ! ण एस दोसो, मिच्छत्तं पडिच्छियूण ट्ठिदसम्मामिच्छत्तस्सेव मिच्छत्तववएसं काढूण सुत्ते तहा णिद्दिट्ठत्तादो । जइ वि अधापवत्तकरणपढमसमयपहुडि पुव्वं पिदंसणमोहक्खवणाए पट्टवगो चेव तो वि एत्थुद्दे से विसेस किरियासु पयट्टत्तादो णिस्संसयं दंसणमोहक्खवणाए पट्टवगो होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तस्स भावत्थो ।
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ऐसी पृच्छा होने पर इस स्थानपर होता है इस बातका कथन करनेके लिये तथा उसके उस अवस्थामें लेश्याविशेषका अवधारण करनेके लिये यह गाथा आई है ।
'मिच्छत्तवेदणीए कम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते' ऐसा कहने पर जिस कर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्व परिणामको वेदता है उस कर्मको मिध्यात्व कर्म कहते हैं, उसके अपवर्तित होनेपर अर्थात् सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित होनेपर वहाँसे लेकर यह जीव दर्शनमोहनीकी क्षपणाका प्रस्थापक इस संज्ञाको प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु उसका अपवर्तन कर किसमें संक्रमित करता है ऐसा पूछने पर 'सम्मत्ते' अर्थात् सम्यक्त्व कर्मप्रकृति में संक्रमित करता है यह निर्देश किया है ।
शंका - मिथ्यात्व वेदनीयकर्मको पूरा अपवर्तन कर सम्यक्त्व में प्रक्षित करता है यह घटित नहीं होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका अपवर्तनकर सम्यग्मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त (संक्रमित ) कर अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्व में प्रक्षिप्त करता है ऐसा नियम देखा जाता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वका पूरा संक्रम करनेके बाद स्थित हुई सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी ही मिथ्यात्व संज्ञा रखकर गाथा सूत्रमें उस प्रकारसे निर्देश किया है ।
यद्यपि अघःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय से लेकर पहले ही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक ही है तो भी इस स्थानपर विशेष क्रियाओंमें प्रवृत्त होनेके कारण निःसंशय दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है यह यहाँ उक्त गाथासूत्रका भावार्थ है ।
विशेषार्थ — इस गाथासूत्र में सर्वप्रथम दर्शनमोहकी क्षपण करनेवाले जीव की प्रस्थापक संज्ञा कहाँ जाकर प्राप्त होती है इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि जब