Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४ ] एत्थतणपदविसेसप्पाबहुअपरूवणा
१०३ $ १५६. तदो एदेसु अणिओगद्दारेसु सवित्थरं विहासिय समत्तेसु दसणमोहक्खवयाहियारो सम्मप्पदि ति जाणावेमाणो उपसंहारवक्कमुत्तरं भणइ
* एवं सणमोहक्खवणाए पंचण्हं सुत्तगाहाणमत्थविहासा समत्ता। सुगम है। आदेशसे नरकगतिमें जघन्य काल साधिक जघन्य आयुप्रमाण और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागरोपम है। तिर्यञ्चगतिमें जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है। मनुष्यगतिमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल एक पूर्वकोटि का कुछ कम एक त्रिभाग अधिक तीन पल्योपम है । देवगतिमें जघन्य काल साधिक दो पल्योपम और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघसे और आदेशसे चारों गतियों में शायिक सम्यग्दृष्टियोंका काल सर्वदा है। (६) अन्तर-एक जीवकी अपेक्षा और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल दो प्रकार है । ओघसे एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार करने पर अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार आदेशसे चारों गतियों में भी समझना चाहिए। (७) भागाभाग-ओघसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सब संसारी जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं । आदेशसे चारों गतियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक गतिमें झायिक सम्यग्दृष्टि जीव सब संसारी जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं । (८) अल्पबहुत्वझयिक सम्यक्त्व एक पद होनेके कारण स्वस्थानकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है।
$ १५६. अतः इन अनुयोगद्वारोंके विस्तारसे व्याख्यान करके समाप्त होने पर दर्शनमोहक्षपक अधिकार समाप्त होता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके उपसंहार सूत्रको कहते हैं
* इन अनुयोगद्वारोंका कथन करने पर दर्शनमोहक्षपणा इस नामका अनुयोगद्वार समाप्त होता है।
___ इस प्रकार दर्शनमोहक्षपणा अनुयोगद्वारमें पाँच सूत्रगाथाओंकी अर्थविभाषा समाप्त हुई।