Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा
* इस्थिवेदस्स उवसामणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे तदो णाणावरणीयदंसणावरणीय अंतराइयाणं संखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो भवदि ।
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१८८. देसि तिन्हं घादिकम्माणमेत्थुद्दे से असंखेजवस्सिओ ट्ठिदिबंधो परिहाइदूण संखेज्जवस्ससहरूसमेतो संजादोत्ति भणिदं होइ । तिन्हं अघादिकम्माणं पुण णाज्ज विसंखेज्जवस्सिओ ट्ठिदिबंधी होइ, घादिकम्माणं व तेसिं सुट्ट ट्ठिदिबंधोसरणासंभवाद । एत्थे तिन्हमेदेसि घादिकम्माणमणुभागबंधविसए वि को विविसेसो संवुत्तो त्ति जाणावणफलमुत्तरसुतं --
* जाधे संखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो तस्समए चेव एदासि तिन्हं मूलपडणं केवलणाणावरण- केवलदंसणावरणवज्जाओ सेसाओ जाओ उत्तरपडीओ तासिमेगट्ठाणिओ बंधो ।
$ १८९. जम्हि चैव समए तिन्हमेदासिं घादिकम्ममूलपयडीणं संखेज्जवस्सिओ द्विदिबंधो पारद्धो तम्हि चेव समए णाणावरणीयस्स केवलणाणावरणवज्जाओ सणावरणीयस्स केवलदंसणावरणवज्जाओ अंतरायस्स सव्वाओ चैव जाओ उत्तरपडीओ एवमेदेसिं बारसहं पयडीणं पुव्वं देसघादिविट्ठाणियसरूवो अणुभागबंधो सुट्ट ओहट्टियूण एगट्ठाणियभावेण परिणदो त्ति वृत्तं हो ।
* स्त्रीवेदके उपशमानेके कालके संख्यातवें भागप्रमाण काल के जानेपर तत्पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होता है ।
१८८. इस स्थल पर इन तीन घाति कर्मोंके असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धको घटाकर संख्यात हजार वर्ष प्रमाण हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु तीन अघाति कर्मोंका अभी भी संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध नहीं होता है, क्योंकि घातिकर्मों के बहुत अधिक हुए स्थितिबन्धापसरणोंके समान उन कर्मोंका बहुत अधिक स्थितिबन्धापसरण सम्भव नहीं है। इस स्थल पर इन तीन घाति कर्मोंके अनुभागबन्ध के विषय में भी कोई विशेषता हो गई है इस का ज्ञान कराने के लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* जिस समय संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हुआ उसी समय इन तीन मूल प्रकृतियोंकी केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणको छोड़कर जितनी शेष उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनका एकस्थानीय बन्ध होने लगता है ।
$ १८९. जिस समय इन तीन घाति मूल प्रकृतियोंका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हुआ उसी समय ज्ञानावरणकी केवलज्ञानावरणको छोड़कर और दर्शनावरणकी केवलदर्शनावरणको छोड़कर शेष प्रकृतियाँ तथा अन्तराय कर्मकी सभी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं इन बारह उत्तर प्रकृतियोंका जो पहले देशघाति द्विस्थानीय अनुभागबन्ध होता रहा वह बहुत घटकर एकस्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।