Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 354
________________ ३११ गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिदेसो मिच्छियूणेदस्स ओकड्डणभागहारो हेट्ठा ठवेयव्यो । पुणो एदस्सासंखेज्जदिभागो चेव किट्टीसु णिसिंचदि त्ति तप्पाओग्गासंखेज्जरूवेहि पुणो वि खंडियूण तत्थ बहुभागे पुध हविय एगभागं घेत्तूण किट्टिअद्धाणेणोवट्टिदे चरिमकिट्टीए णिवदिददव्यमणंतादिवग्गणपमाणमागच्छदि । एवमेदं ठविय पुणो जहण्णफद्दयस्सादिवग्गणाए णिवदिदपदेसग्गपमाणावहारणट्ठमोवट्टणविहिं वत्तइस्सामो । तं जहा--पुव्वं पुध हविदबहुभागे फद्दयवग्गणासु सव्वासु विहंजिय एगगोवुच्छायारेण णिसिंचदि ति तेसिं दिवड्डगुणहाणिभागहारो हेट्ठा द्ववेयव्यो, पढमवग्गणाए णिसित्तदव्वपमाणेण सयलदव्वे कीरमाणे दिवड्डगुणहाणिपमाणुप्पत्तिदसणादो। तदो गुणगार-भागहारेसु सरिसमवणिय जोइदे आदिवग्गणाए असंखेज्जदिभागमेत्तं चेव तत्थ णिवदिददव्वपमाणमागच्छदि। तदो चरिमकिट्टीए णिवदिददव्वादो अणंतादिवग्गणपरिमाणादो एगादिवग्गणासंखेज्जदिभागमेत्तमेदं दव्वमणंतगुणहीणमिदि सिद्धं, दिस्समाणं पि पेक्खियूण भण्णमाणे तहाभावोवलंभादो । तम्हा किट्टीसु एया गोवुच्छा, सेढिफद्दएसु अण्णा त्ति एवमेत्थ दोगोवुच्छसेढीओ, दोण्हमेयगोवुच्छकरणोवायाभावादो । २६६. अण्णे वक्खाणाइरिया किट्टीसु फद्दएस च एयगोवुच्छासेढी होदि त्ति भण्णमाणा एवं भणंति--जहा चरिमकिट्टीए णिक्खित्तपदेसादो जहण्णादिफद्दय गये समस्त द्रव्यको लाना चाहते हैं, इसलिये इसके अपकर्षण भागहारको इसके नीचे स्थापित करना चाहिए । पुनः इसका असंख्यातवाँ भाग ही कृष्टियोंमें निक्षिप्त होता है, इसलिये तत्प्रायोग्य असंख्यातके द्वारा फिर भी खण्डितकर उसमें से बहुभागको पृथक स्थापित कर एक भागको ग्रहणकर कृष्टिसम्बन्धी अध्वानके द्वारा अपवर्तित करनेपर अन्तिम कृष्टिमें प्राप्त द्रव्य अनन्त आदि वर्गणाप्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार इसको स्थापितकर पुनः जघन्य स्फर्धककी आदि वर्गणामें प्राप्त प्रदेशपुजके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये अपकर्षणविधिको बतलायेंगे। यथा-पहले पृथक् स्थापित किये गये बहुभागको स्पर्धककी सभी वर्गणाओंमें विभाजित कर एक गोपुच्छाकाररूपसे सिञ्चित करता है, इसलिये उनका डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार नीचे स्थापित करना चाहिए, क्योंकि प्रथमं वर्गणामें निक्षिप्त हुए द्रव्यके प्रमाणरूपसे सकल द्रव्य के करनेपर डेढ़ गुणहानिप्रमाणकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए गुणकार और भागहारमेंसे सदृशका अपनयनकर देखनेपर, आदिवर्गणाका असंख्यातवाँ भाग ही वहाँ प्राप्त हुआ द्रव्यप्रमाण आता है। इसलिये अन्तिम कृष्टिमें प्राप्त द्रव्यकी अपेक्षा अनन्त आदि वर्गणाके प्रमाणसे एक आदि वर्गणाके असंख्यातवें भागप्रमाण यह द्रव्य अनन्तगुणा हीन है यह सिद्ध हुआ, क्योंकि दृश्यमान द्रव्यको भी देखते हुए कथन करनेपर उस प्रकारकी उपलब्धि होती है । इसलिये कृष्टियोंमें एक गोपुच्छा होती है तथा श्रेणि-स्पर्धकों में अन्य गोपुच्छा होती है इस प्रकार यहाँपर दो गोपुच्छाश्रेणियाँ होती हैं, क्योंकि दोनों गोपुच्छाओंका एक गोपुच्छा करनेके उपायंका अभाव है। .. ६२६६. अन्य व्याख्यानाचार्य कृष्टियोंमें और स्पर्धकोंमें एक गोपुच्छाश्रेणि होती है ऐसा बतलाते हुए ऐसा कहते हैं-अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशोंसे जघन्य स्पर्धककी

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