Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ ३३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा परिणामपच्चइयस्स गहणं कायव्वं । एवमेदेसिं परिणामपच्चइयाणं णामा-गोदाणमेसो अणुभागोदएणावद्विदवेदगो चेव होइ, परिणामपच्चइयाणं तेसिमवद्विदपरिणामविसये पयारंतरासंभवादो त्ति सुत्तत्थसंगहो । सेसाणं पुण भवपच्चइयाणमेत्थ वेदिजमाणाधादिपयडीणं सादादीणं छवडि-छहाणिकमेणाणुभागमेसो वेदेदि त्ति घेत्तव्वं । एवमेत्तिएण पबंधेण कसायोवसामगस्स परूवणाविहासणं कादूण संपहि पयदमत्थमुवसंहरेमाणो इदमाह-- * एवमुवसामगस्स परूवणा विहासा समत्ता। ३०७. सुगमं। णामप्रत्यय इन नाम और गोत्रकर्मका यह अनुभाग-उदयकी अपेक्षा अवस्थितवेदक ही है, क्योंकि परिणामप्रत्यय उनके अवस्थित परिणामविषयक- होनेपर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है यह सूत्रार्थसमुच्चय है । परन्तु यहाँपर वेदी जानेवाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि अघाति प्रकृतियोंके छह वृद्धि और छह हानिके क्रमसे अनुभागको यह वेदता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा कषायोंके उपशामककी प्ररूपणाका विशेष व्याख्यान करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार उपशामकका प्ररूपणासम्बन्धी विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ। ६३०७. यह सूत्र सुगम है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402