Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 376
________________ गाथा १२३] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिदेसो ३३३ अवट्ठिदो ओहिणाणावरणाणुभागुदयो होइ, तत्तो अण्णत्थ छवड्डि-हाणि-अवट्टिदसरूवेणाणवढिदो तदुदयो होदि त्ति एसो एदस्स भावत्थो। . ३०५. एवं मणपञ्जवणाणावरणीयस्स वि वत्तव्वं । एवं सेसणाणावरणदसणावरणीयाणं पि समयाविरोहेण एसो अत्थो जाणियण परूवेयव्यो। संपहि अघादि. कम्माणि वि जाणि परिणामपञ्चयाणि तेसिमवढिदवेदगो चेव होदि ति पदुप्पायणढमुत्तरसुत्तं भणदि * णामाणि गोदाणि जाणि परिणामपञ्चयाणि तेसिमवट्ठिदवेदगो अणुभागोदएण। 5 ३०६. एत्थ णामग्गहणेण वेदिजमाणणामपयडीणं गहणं कायव्वं, अवेदिजमाणपयडीणमेत्थाणहियारादो। ताओ कदमाओ त्ति भणिदे-मणुसगइ-पंचिंदियजादिओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर० छण्हं संठाणाणमेक्कदर० ओरालियसरीरअंगोवंग तिण्हं संघडणाणमेक्कदर० वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास० दोण्हं विहायगदीणमेक्कदर० तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ० सुस्सरदुस्सराणमेकदर० आदेज-जसगित्ति-णिमिणमिदि एदाओ। एत्थ तेजा-कम्मइयसरीरवण्ण-गंध-रस-सीदुण्ह-णिद्धरुक्खणामाणि अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुभासुभ-सुभगादेज्जजसगित्ति-णिमिणणाममिदि एदाणि परिणामपच्चइयाणि । गोदग्गहणेण उच्चागोदस्स का उदय अवस्थित होता है । तथा उससे अन्यत्र उसका उदय छह वृद्धियों, छह हानियों और अवस्थितरूपसे अनवस्थित होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। ६३०५. इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानावरणकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । इसी प्रकार शेष ज्ञानावरण और शेष दर्शनावरणकी अपेक्षा भी आगमानुसार यह अर्थ जानकर कथन करना चाहिये । अब अघातिकम भी जो परिणामप्रत्यय है उनका अवस्थित वेदक ही होता है इसका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं - * जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणामप्रत्यय होते हैं उनका अनुभागउदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक होता है । ३०६. यहाँपर 'नाम' पदके ग्रहण करनेसे वेदी जानेवाली नामप्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि नहीं वेदी जानेवाली नामप्रकृतियोंका यहाँ अधिकार नहीं है । वे कौन हैं ऐसा कहनेपर मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिक शरीर आंगोवांग, तीन संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श,अगुरुलघु, उपघात,परघात, उच्छवास, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर और दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण ये प्रकृतियाँ हैं । इनमेंसे तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, शीत-उष्ण-स्निग्ध-रुक्ष स्पर्श, अंगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, ओदय, यशःकीर्ति और निर्माणनाम ये प्रकृतियाँ परिणामप्रत्यय हैं। गोत्रकर्मके ग्रहण करनेसे परिणामप्रत्यय उच्चगोत्रका ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार परि

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