Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 370
________________ गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय - उवसामणाए करणकज्जणिद्देसो ३२७ वीरागो च उवसंतकसायवीदरागो, उवसमिदासेस कसायत्तादो उवसंत कसायो, विकासे सराग परिणामत्तादो वीदरागो च होण अंतोमुहुत्त मेसो सच्छपरिणामो होदूणच्छदिति वृत्तं होइ | अंतोमुहुत्तादो अहियं कालमेत्तोवसंतकसायभावेण किण्णावचिदे ? ण, अंतोमुहुत्तादो परमुवसमपजायस्सावट्ठाणासंभवादो । * सव्विस्से उवसंतद्धाए अवद्विदपरिणामो । $ २९६. कुदो ? परिणामहाणि वड्डिणिबंधणकसायाणमुदयाभावादो अवदि-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमाणुविद्धसुविसुद्धवीयराय परिणामेण पडिसमयमभिण्णसरूवेण सगद्धमेसो अणुपालेदित्ति वृत्तं होइ । संपहि एदेण कीरमाणगुणसेढिणिक्खेवस्स पर्माणावहारणमुत्तरमुत्तणिद्द सो * गुणसेढिणिक्खेवो उवसंतद्धाए संखेज्जदिभागो । $ २९७. उवसंतद्धा अंतोमुहुत्तपमाणा, एदिस्से उवसंतद्धाए संखेज्जदिभागयामो दस गुणसेढिणिक्खेवो णाणावरणादिकम्मपडिबद्धो होदि । होंतो वि अपुव्वकरणपढमसमए कदगलिदसे सगुण सेढिणिक्खेवस्स एहिमुवलब्भमाणसीसयादो संखेण । कुदो एदं णभ्वदे । उवरि भणिस्समाणअप्पा बहु असुत्तादो | उपशान्तकषाय वीतराग वह उपशान्तकषायवीतराग कहलाता है । समस्त कषायोंके उपशान्त हो जानेसे उपशान्तकषाय और समस्त रागपरिणामके नष्ट हो जानेसे वीतराग होकर वह अन्तर्मुहूर्त काल तक अत्यन्त स्वच्छ परिणामवाला होकर अवस्थित रहता है यह उक्त कथन - पर्य है । शंका-- अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक वह उपशान्तकषायभावके साथ क्यों अवस्थित नहीं रहता है ? समाधान—-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे और अधिक काल तक उपशम पर्यायका अव - स्थान असम्भव है । * तब समस्त उपशान्त कालमें वह अवस्थित परिणामवाला होता है । $ २९६. क्योंकि परिणामोंकी हानि और वृद्धिके कारणभूत कषायोंके उदयका अभाव होनेसे अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम से युक्त सुविशुद्ध वीतरागपरिणाम के साथ प्रति समय अभिन्नरूपसे उपशान्तकषाय वीतरागके कालका यह पालन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस द्वारा किये जानेवाले गुणश्र णिनिक्षेपके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगे सूत्रका निर्देश करते हैं -- * वहाँ गुणश्रेणिनिक्षेप उपशान्त कालके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । २९७. उपशान्त काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इस उपशान्त कालके संख्यातवें भागप्रमाण आयामवाला इस जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोंका गुणश्रेणि निक्षेप होता है । होता हुआ भी अपूर्वकरणके प्रथम समय में किये गये गलित शेष गुणश्र णिनिक्षेपके इस समय प्राप्त होनेवाले शीर्ष से संख्यातगुणा होता है ।

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