Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 373
________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा वि उवसंतकसाएण पढमसमयम्मि कदगुण सीसेढिसयस्स परिणाममाहप्पेणासंखेजगुणत्तदंसणादो । तम्हा पुव्वत्तविसये चेव णाणावरणादीणं छण्हं मूलपयडीणं जहा संभवमुत्तरपयडीणं च उक्कस्सओ पदेसुदयो घेत्तव्वो । आदेसुक्कस्सो च एसो, खवगसेटीए एदासिमोघुकस्सपदेसुदयदंसणादो । उवसंतकसायम्मि ९३००. संपहि णाणावरणादिकम्माणमणुभागोदओ किमवट्ठिदो आहो अणवट्ठिदसरूवो ति आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो* केवलणाणावरण- केवल दंसणावरणीयाणमणुभागुदण संतद्धाए अवट्ठिदवेदगो । सव्वउव कषाय द्वारा प्रथम समय में किया गया गुणश्रेणिशीर्ष परिणामोंके माहात्म्यवश असंख्यात - गुण देखा जाता है। इसलिये पूर्वोक्त स्थलपर ही ज्ञानावरणादि छह मूल प्रकृतियोंका और यथासम्भव उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेश- उदय ग्रहण करना चाहिए। किन्तु यह आदेश उत्कृष्ट है, क्योंकि इनका ओघ उत्कृष्ट प्रदेश-उदय क्षपकश्रेणिमें देखा जाता है । विशेषार्थ — यहाँ इस पूरे प्रकरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि उपशान्तकषाय के प्रथम समयमें अवस्थित आयामवाले गुणश्रेणिशीर्ष में द्रव्यका निक्षेप होता है, और जब क्रमसे उसका उदय होता है तब उत्कृष्ट प्रदेश-उदय होता है, क्योंकि इसमें अपूर्वकरण के प्रथम समयमें किये गये गलित शेष गुणश्र णिशीर्ष में निक्षिप्त पूरे द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप होता है । किन्तु ज्ञानावरणादि कर्मोंके इस प्रदेश - उदयको ओघ उत्कृष्ट नहीं समझना चाहिए, क्योंकि इन कर्मोंका ओघसे उत्कृष्ट प्रदेश-उदय क्षपकश्रेणिमें होता है । यहाँ पर एक शंका यह भी की गई है कि उपशान्तकषाय जीवके गुणश्रेणिसम्बन्धी प्रत्येक स्थिति में प्रति समय अवस्थित पुञ्जका ही निक्षेप होता है, ऐसी अवस्था में उपशान्तकषाय के प्रथम समय में जो गुणश्रेणिशीर्ष किया गया है उसीके उदयमें आनेपर उत्कृष्ट प्रदेशउदय क्यों कहा है । उसके बादके उपशान्तकषाय में प्राप्त होनेवाले जितने स्थितिविशेष हैं उनमें भी जब उतने ही प्रदेशपुञ्जका निक्षेप होता है तब उनके भी क्रमसे उदयमें आनेपर वहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेश-उदय कहना चाहिये । यह एक प्रश्न है । इसका समाधान करते हुए जो 'कुछ कहा गया है उसका आशय यह है कि उन स्थितिविशेषों में जो पूर्व की गोपुच्छा है जिसे प्रकृति गोपुच्छा कहते हैं उसके प्रत्येक स्थितिविशेषमें उत्तरोत्तर एक-एक गोपुच्छा विशेषकी हानि देखी जाती है, अतः उन स्थितिविशेषोंमें से प्रत्येक में संचित हुआ समग्र द्रव्य उपशान्तकषायके प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे उत्तरोत्तर हीन-हीन होता गया है, अतः उत्कृष्ट प्रदेश-उदय निर्दिष्ट स्थलपर ही जानना चाहिए । § ३००. अब उपशान्तकषायमें ज्ञानावरणादि कर्मोंका अनुभाग- उदय क्या अवस्थित होता है या अनवस्थितस्वरूप होता है ऐसी आशंका होनेपर उसका निराकरण करनेके लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * समग्र उपशान्तकालके भीतर केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के अनुभाग- उदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक होता है ।

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