Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 357
________________ ३१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा ओसरिदूण द्विदतदित्थफद्दयस्स उक्कस्सिया वग्गणा ति । संपहि एसा चेव परूवणा तदियादिसमएसु वि कायव्वा विसेसाभावादो ति पदुप्पायणट्ठमुतरसुत्तमाह * जहा विदियसमए तहा सेसेसु समएसु। $ २६८. सुगमं । एसा दिजमाणस्स' दव्वस्स सेढिपरूवणा। संपहि दिस्समाणस्स सेढिपरूवणे भण्णमाणे पढमाए किट्टीए दिस्समाणं पदेसग्गं बहुअं, विदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव चरिमकिट्टि ति । पुणो फद्दयवग्गणासु वि दिस्समाणं विसेसहीणं चेव भवदि । णवरि किट्टीदो फद्दयसंधी अणंतगुणहीणा । संपहि किट्टीणं तिव्वमंददाए अप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तं भणइ ____* तिव्वमंददाए जहणिया किट्टी थोवा। विदिया किट्टी अणंतगुणा। तदिया अणंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेढीए गच्छदि जाव चरिमकिट्टि त्ति । २६९. एत्थ 'जहणिया किट्टी थोवा' त्ति भणिदे जहण्णकिट्टीए सरिसधणियपरमाणुं मोत्तण तत्थेयपरमाणुअविभागपलिच्छेदे घेत्तूण एगा किट्टी भवदि । इमा थोवा त्ति घेत्तन्वा । पुणो विदियकिट्टी अणंतगुणा त्ति वुत्ते एसो वि एगपरमाणुधरिदाविभागपलिच्छेदकलावो चेव गहेयव्यो। एवमेगेगपरमाणुं चेव घेत्तण अणंतगुणउत्कृष्ट बर्गणाके प्राप्त होने तक अनन्तवाँ भागप्रमाण विशेष हीन प्रदेशविन्यास करता है। अब विशेषका अभाव होनेसे यही प्ररूपणा तृतीयादि समयोंमें भी करनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * प्रदेशविन्यासका जैसा क्रम दूसरे समय में है वैसा शेष समयोंमें जानना चाहिए। २६८. यह सूत्र सुगम है। दिये जानेवाले द्रव्यकी यह श्रेणिप्ररूपणा है। अब द्रश्यमान द्रव्यकी श्रेणि प्ररूपणा करनेपर प्रथम कृष्टिमें द्रश्यमान प्रदेशपुंज बहुत है । उससे दूसरीमें अनन्तवाँ भागप्रमाण विशेष हीन है। इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक उत्तरोत्तर विशेष हीन है । पुनः स्पर्धककी वर्गणाओंमें भी द्रश्यमान द्रव्य विशेष हीन ही होता है । अब कृष्टियोंकी तीव्र-मन्दता सम्बन्धी अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * तीव्रमन्दताकी अपेक्षा जघन्य कृष्टि स्तोक है। उससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी है । उससे तीसरी अनन्तगुणी है । इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक अनन्तगुणित श्रेणिरूषसे क्रम चालू रहता है। ६२६९. यहाँपर 'जघन्य कृष्टि स्तोक है' ऐसा कहनेपर जघन्य कृष्टिके सदृश धनवाले परमाणको छोडकर वहाँके एक परमाणुके अविभाग प्रतिच्छेदोंको ग्रहणकर एक कृष्टि होती है । यह स्तोक है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । पुनः 'दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी है' ऐसा कहने पर यह भी एक परमाणुमें जितने अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त हों उनका समुदाय

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