Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 355
________________ ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय- उवसामणा वग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं विसेसहीणं च पदेसग्गं देदि अनंतभागेणे ति णेदं घडदे, तहा इच्छिज्जमाणे किट्टीसु णिवदिदासेसदव्वस्स एयसमयपबद्धाणंतभागपमाणत्तपसंगादो । होदु चे ? ण, तहान्भुवगमे कीरमाणे सुहुमकिट्टीओ वेदयमाणस्स सुहुमसांपराइयस्स पढमट्ठिदीए गुणसेढिणिक्खेवाभावदो सत्पसंगादो । ण च समयपबद्धाणंतिमभागमेत्तपदेसेहिं गुण सेढिणिक्खेव संभवो, विप्पडिसेहादो । तम्हा पुव्वुत्तो समयपबद्धो घेत्तव्वो । एवं ताव पढमसमए किडीसु दिज्जमानपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि विदियसमए तप्परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ- * विदियसमए जहण्णियाए किहीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । विदियाए विसेसहीणं । एवं जाव ओघुक्कस्सियाए विसेसहीणं । $ २६७. एदस्स सुतस्सत्थो । तं जहा -- पढमसमयोकडिददव्वादो असंखेज्जगुणं पढमोकड्डियूण विदियसमए पुण्यापुब्बकिट्टीसु णिसिंचमाणो विदियसमए जा जहण्णिया किड्डी तक्कालणिव्वसिज्जमाणाणमपुव्वकिट्टीणमादिमा, तिस्से आयारेण पदेसग्गमसंखेज्जगुणं देदि । कत्तो एदं दब्बमसंखेज्जगुणमिदि चे ? पढमसमए चरिमकिड्डीए आदिवर्गणा में असंख्यातगुणे हीन और विशेष हीन प्रदेशपुब्जको देता है, अनन्तवें भाग ही देता है यह घटित नहीं होता है, क्योंकि उस प्रकारसे इच्छित करनेपर कृष्टियों में पतित हुआ समस्त द्रव्य एक समयप्रबद्ध के अनन्तवें भागप्रमाण होता है ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है । शंका- ऐसा होओ ? समाधान — नहीं, क्योंकि वैसा स्वीकार करनेपर सूक्ष्म कृष्टियोंका वेदन करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिककी प्रथम स्थिति में गुणश्रेणिनिक्षेपके अभावरूप दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । और समयप्रबद्ध के अनन्तवें भागप्रमाण प्रदेशोंके द्वारा गुणश्रेणिनिक्षेप सम्भव नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है । इसलिये पूर्वोक्त समयप्रबद्ध ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम समय में कृष्टियों में दिये जानेवाले प्रदेशपुजकी श्रोणिका कथन करके अब दूसरे समय में उसका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * उससे दूसरे सयय में जघन्य कृष्टि में असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है । उससे दूसरी कृष्टिमें विशेष हीन प्रदेशपुञ्जको देता है । इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक विशेष हीन प्रदेशपुञ्जको देता है। $ २६७. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा - प्रथम समय में अपकर्षित द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यको प्रथम अपकर्षित कर द्वितीय समय में पूर्व और अपूर्व कृष्टियों में सिंचन करता हुआ द्वितीय समय में तत्काल रची जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जो आदि जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुब्ज को देता है । शंका -- किससे यह द्रव्य असंख्यातगुणा है ? समाधान- - प्रथम समयकी अन्तिम कृष्टि में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे यह असंख्यान गुणा है।

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