Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 356
________________ गाथा १२३ ] चरितमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिद्देसो ० णिसितपदेसग्गादो। ण ततो एदस्सासंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, असंखेज्जगुणोकट्टिददव्वमाहप्पेदस्स तत्तो तहोभावसिद्धीए विरोहाभावादो। एत्तो विदियाए अपुव्वकिट्टीए विसेसहीणं देदि । केत्तियमेत्तेण ? अनंतभागमेत्तेण । एवं णेदव्वं जाव अपुव्वाणं चरिमकिट्टिति । तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं किट्टीणं जहण्णियाए किट्टीए विसेसहीणं । केत्तियमेत्तेण १ असंखेजदिभागमेत्तेण अनंतिमभागमेत्तेण च । तं कधं ? पुव्व किट्टीण मुवरि पढमसमए णिसित्तदव्वादो एहिं णिसिंचमाणदव्वमोकड्डिददव्वपाम्मेणासंखेजगुणं होदि, तेण तत्थ पुव्वावट्ठिददव्त्रमेहिं णिसिंचमाणदव्वस्सासंखेजदिभागमेत्तमत्थि । तदो तेत्तियमेत्तेणूणं काढूण पुणो एगगोवुच्छविसेसमेत्तेण च ऊणं काढूण पदेसविण्णासं करेदि, अण्णहा किट्टीसु एगगोवुच्छासेढीए अणुप्पत्तीदो। एत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणमणंतभागेण जाव ओघुक्कस्सियाए पढमसमयणिव्वत्तिदकिट्टीणं चरिमा कट्टिति । तदो जहण्णफद्दयादिवग्गणाए अनंतगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणमणंतभागेणेत्ति णेदव्वं जाव उक्कस्सफद्दयादो जहण्णा इच्छावणामेत्त फद्दयाणि हेट्ठा 1 ३१३ तथा उसकी अपेक्षा इसका असंख्यातगुणापन असिद्ध नहीं है, क्योंकि अपकर्षित किये गये असंख्यातगुणे द्रव्यके माहात्म्यवश इसके उसकी अपेक्षा उस प्रकारके सिद्ध होनेमें विरोधका अभाव है । इसकी अपेक्षा दूसरी अपूर्व कृष्टिमें विशेष हीन देता है । शंका- कितना कम देता है ? समाधान — अनन्तवें भागप्रमाण कम देता है । इसप्रकार अपूर्व कृष्टियों में जो अन्तिम कृष्टि है जाना चाहिए। उसके बाद प्रथम समय में रची गई विशेष हीन देता है | शंका -- कितना कम देता है ? समाधान – असंख्यातवें भागप्रमाण और अनन्तवें भागप्रमाण कम देता है । शंका- वह कैसे ? ले वहाँ तक इसी क्रमसे द्रव्य देते हुए कृष्टियोंमें जो जघन्य कृष्टि है उसमें समाधान - पूर्व की कृष्टियोंके ऊपर प्रथम समय में निक्षिप्त किये गये द्रव्यसे इस समय निक्षिप्त किये जानेवाला द्रव्य अपकर्षित किये गये द्रव्य के माहात्म्यवश असंख्यातगुणा होता है, इसलिए उसमें पहलेका अवस्थित द्रव्य इस समय सिंचित किये जानेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । इसलिये उतना कम करके पुनः एक गोपुच्छाविशेष और कम करके प्रदेशविन्यास करता है, अन्यथा कृष्टियों में एक गोपुच्छाश्रेणिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इससे आगे ओ उत्कृष्ट कृष्टिकी अपेक्षा प्रथम समय में रची गई कृष्टियोंमें अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक सर्वत्र अनन्तवाँ भागप्रमाण विशेष हीन प्रदेश विन्यास करता है । पुनः उससे जघन्य स्पर्धककी आदिकी वर्गणा में अनन्तगुणा हीन प्रदेश विन्यास करता है । पुनः उससे उत्कृष्ट स्पर्धकसे जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण स्पर्धक नीचे सरककर स्थित हुए वहाँके स्पर्धककी ४०

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