Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 365
________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा तम्हा पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण खंडिदेयखंडमेत्तमवरिमासंखेज्जदिमागं मोत्तण सेसा जे पढमममए कदकिट्टीणमसंखेज्जा भागा ते वि सुहुमसांपराइयस्स पढमसमए उदिण्णा त्ति घेत्तव्वं । * जाओ चरिमसमए कदाओ किट्टीओ तासिं च जहण्णकिट्टिप्पहुडि असंखेजदिभार्ग मोत्त ण सेसाओ सव्वाओ किट्टीओ उदिण्णाओ । २८६. किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए णिव्वत्तिदाणं किट्टीणं जहण्णकिट्टीदो पहुडि हेटिममसंखेजदिमागपलिदोवमासंखेज्जदिमागपडिभागियमुज्झियूण सेसबहुभागविसयाओ सव्वाओ चेव किट्टीओ तकालमुदये पवेसिदाओ त्ति भणिदं होदि । तदो सिद्धं पढमसमयसुहुमसांपराइयो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेदि त्ति पढम-चरिमसमयणिव्वचिदकिट्टीणमुवरिमहेडिमासंखेज्जदिभागविसयाणं चेव किट्टीणमेत्थोदयबहिब्भावदंसणादो। णवरि पढमसमयम्मि कदकिट्टीणमवेदिज्जमाणउवरिमासंखेज्जदिभागभंतरकिट्टीओ ओकड्डणाए अणंतगुणहीणाओ होदूण मज्झिमकिट्टिसरूवेण वेदिज्जति । चरिमसमए णिव्वत्तिदकिट्टीणं जहण्णकिट्टिप्पहुडि अवेदिज्जमाणहेट्टिमासंखेज्जदिभागभंतरकिट्टीओ च मज्झिमकिट्टिसरूवेणाणतगुणाओ होइण वेदिज्जति त्ति वनव्वं, सगसरूवेणेव तेसिमुदयाभावपदुप्पायणादो, मज्झिमायारेण तदुदयसिद्धीए पडिसेहाउदयरूप परिणाम नहीं पाया जाता, इसलिये पल्योपमके असंख्यातवें भागले खण्डित एक भागप्रमाण उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंका शेष जो असंख्यात बहुभाग बचता है वह सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। * और जो कृष्टियाँ अन्तिम समयमें की गई उनकी जघन्य कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष सब कृष्टियाँ उदीर्ण हो जाती हैं। २८६. कृष्टिकरणके कालके अन्तिम समयमें रची गई कृष्टियोंके पल्योपमके असं. ख्यातवें भागरूप प्रतिभाग द्वारा प्राप्त जघन्य कृष्टिसे लेकर, अधस्तन असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष बहुभागप्रमाण सभी कृष्टियोंको उस समय उदयमें प्रविष्ट कराई गई यह उक्त कथनका तात्पर्य है, इसलिए सिद्ध हुआ कि प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीव कृष्टि योके असंख्यात बहभागका वेदन करता है, अतः प्रथम समय और अन्तिम समयमें रचित कृष्टियोंमेंसे उपरिम और अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंका ही यहाँपर उदयाभाव देखा जाता है । इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंमेंसे नहीं वेदे जानेवाले उपरिम असंख्यातवें भागके भीतरकी कृष्टियाँ अपकर्षण द्वारा अनन्तगुणी हीन होकर मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं । तथा अन्तिम समयमें रची गई कृष्टियोंमेंसे जघन्य कृष्टिसे लेकर नहीं वेदे जानेवाले अधस्तन असंख्यातवें भागके भीतरकी कृष्टियाँ मध्यम कृष्टिरूपसे अनन्तगुणी होकर वेदी जाती हैं ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि अपने रूपसे ही उनके उदयामावका कथन किया है, मध्यम आकाररूप होकर उनके उदयकी सिद्धिका प्रतिषेध नहीं

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