Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 337
________________ २९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणी पढमहिदीए तिण्णि आवलियाओ सेसाओ त्ति । . $ २२४. एत्थ दुविहो कोहो ति वुत्ते पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणकोहाणं गहणं कायव्वं, अण्णहासंभवादो। सो ताव कोहसंजलणे गुणसंकमेण संछुहदि जाव कोहसंजलणपढमद्विदी आवलियत्तियमेत्ता सेसा त्ति । कुदो ? एदम्मि अवत्थंतरे तत्थ तदुभयसंकंतीए विरोहाभावादो। संकमणावलियभावेण पढमावलियं बोलाविय पुणो विदियावलियाए पढमसमयप्पहुडि उवसामणावलियमेत्तेण कालेण तं दव्वमुवसामेदि । तदो तदियावलियमुच्छिट्ठावलियभावेण छंडिदि ति एदेण कारणेण तिसु. आवलियासु सेसासु कोहसंजलणस्स दुविहस्स कोहस्स संकमो ण विरुज्झदे। ___ * तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु तत्तो पाए दुविहो कोहो कोहसंजलणेण संछुभदि । २२५. कोहसंजलणपढमद्विदीए अणंतरपरूविदाणं तिहमावलियाण पडिवुण्णाणमभावे तमुन्लंघियण माणसंजलणम्मि दुविहं कोहं संछुभदि, पयारंतासंभवादो त्ति भणिदं होइ । एवमेदेण कमेण कोहसंजलणपढमहिदि गालेमाणस्स जाधे संज्वलनकी प्रथम स्थितिमें तीन आवलियां शेष रहती हैं। $ २२४. यहाँ पर दो प्रकारका क्रोध ऐसा कहने पर प्रत्याख्यानावरण क्रोध और अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। वे दोनों क्रोधसंज्वलनमें गुणसंक्रमके द्वारा तब तक संक्रमित होते हैं जब तक क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति तीन आवलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि इस अवस्थाके भीतर उसमें उन दोनों के संक्रमित होने में विरोधका अभाव है। संक्रमणावलिरूपसे प्रथम आवलिको विताकर पुनः दूसरी आवलिके प्रथम समयसे उपशामनावलिप्रमाण कालके द्वारा उस द्रव्यको उपशमाता है, इसलिए तीसरी आवलिको उच्छिष्टावलिरूपसे छोड़ देता है। इस कारणसे तीन आवलियाँ शेष रहने तक क्रोधसंज्वलनमें दो प्रकारके क्रोधोंका संक्रम विरोधको नहीं प्राप्त होता। विशेषार्थ-क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिसम्बन्धी संक्रमणावलि, उपशमनावलि और उच्छिष्टावलि इन तीन आवलियोंके अवशिष्ट रहने तक क्रोधसंज्वलनमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोधका संक्रम होता है। इसके बाद नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक समय कम तीन आवलियोंके शेष रहने पर वहांसे लेकर दो प्रकारके क्रोधका क्रोधसंज्वलनमें संक्रम नहीं होता। . २२५. क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिमें अनन्तर पूर्व कही गई परिपूर्ण तीन आवलियोंका अभाव होनेपर उसको उल्लंघन कर मानसंज्वलनमें दो प्रकारके क्रोधका संक्रम करता है, क्योंकि दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार १. ता. प्रतो दुविहकोह ( हो ) संजलणे इति पाठः । २. ता. प्रतौ कोहं [ण] संछुभदि इति पाठः ।

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