Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 348
________________ गाथा १२३ ] चरितमोहणीय - उवसामणाए करणकज्जणिद्देसो $ २५४. एददुक्तं भवति - एत्तो प्यहुडि जा लोभवेदगद्धा होइ सुहुमसांपराइयचरिमसमयपज्जंता तं लोभवेदगद्धं तिणिण भागे काढूण तत्थ सादिरेय वेत्तिभागमेत्ती लोभसंजणस्स पढमट्ठिदी एहि कदा ति । किं कारणं १ एत्तो उवरिमासेस लोभवेदगवाए देसूणतिभागमेत्ती सुहुमलोभवेदगद्धा होदि । तं मोत्तूण तत्तो सादिरेयद्गुणतबादरलो भवेदगद्धमावलियमन्महियं काढूण बादरसांपराइओ पढमट्ठिदि करेदिति । एदेण कारणेण सव्विस्से लोभवेदगद्धाए सादिरेयवेत्तिभागमेत्ती लोभस्स पढमहिदी एसा दट्ठव्वा । एवमेत्तियमेति पढमट्ठिदिं काढूण तिविहं लोभमुवसामेमाणस्स पढमसमए लोभसंजलणादीणं द्विदिबंधपमाणावहारणट्ठमुत्तरो सुपबंधो ३०५ * ताधे लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो मासो अंतोमुहुत्त्रेण ऊणो । $ २५५. चरिमसमयमायावेदगस्स ट्ठिदिबंधो मासो पडिवुण्णो, तत्तो अंतोमुहुत्तेण ओसरिदूण लोभसंजलणस्स विदिबंध मेहिमाढवेदिति वृत्तं होइ । * सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्त्राणि । $ २५६. णाणावरणादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो पुव्विल्लट्ठिदिबंधादो संखेज्जगुणहाणी पयट्टमाणो अज्ज वि संखेज्जवस्ससहरसमेत्तो चेव, संखेज्जवस्ससह स्सवियप्पाणमय भेयभिण्णत्तादो त्ति भणिदं होदि । एत्थ णाणावरणादिकम्माणं हिदि § २५४. इसका यह तात्पर्य है - यहाँसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय पर्यन्त जो लोभवेदक काल है उस लोभवेदक कालके तीन भाग करके उनमें से साधक दो त्रिभागप्रमाण लोभसंज्वलनकी प्रथम स्थिति इस समय की, क्योंकि यहाँसे उपरिम समस्त लोभ वेदक कालके कुछ कम तीसरे भागप्रमाण सूक्ष्म लोभवेदक काल होता है । उसे छोड़कर उससे साधिक दूने बादर लोभ वेदक कालको एक आवलिप्रमाण अधिक करके बादर साम्परायिक जीव प्रथम स्थिति करता है । इस कारण से पूरा लोभ वेदककाल साघिक दो त्रिभागप्रमाण लोभकी यह प्रथम स्थिति जाननी चाहिए। इस प्रकार इतनी प्रथम स्थिति करके तीन प्रकारके लोभको उपशमानेवाले जीवके प्रथम समयमें लोभसंज्वलनादिकके स्थितिबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं— * तब लोभसंज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम एक मास होता है । $ २५५. अन्तिम समयवर्ती मायावेदकका स्थितिबन्ध पूरा एक मास होता है, उससे अन्तर्मुहूर्त घटाकर इस समय लोभसंज्वलनके स्थितिबन्धको आरम्भ करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होता है । $ २५६. परन्तु ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्ध से संख्यातगुणी हानिरूपसे प्रवृत्त होता हुआ अभी भी संख्यात हजार वर्षप्रमाण ही होता है, क्योंकि संख्यात हजार वर्षोंके अनेक भेद पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर ज्ञाना ३९

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