Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ दंसणमोहक्खवणा
दव्वपाणणिसो कओ । एदं च देसामासयं तेण संतपरूवणादीहिं अट्ठाणिओगद्दारेहिं ओघादेस विसेसिदेहिं खइयसम्माइट्ठीणमेत्थ परूवणा वित्थरेण कायव्वा ।
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गतियोंके सम्बन्धसे द्रव्यप्रमाणका निर्देश किया गया है । किन्तु यह कथन देशामर्षक है, इसलिये ओघ और आदेश के भेदसे विशेषताको प्राप्त हुए सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी यहाँ विस्तार से प्ररूपणा करनी चाहिए ।
विशेषार्थ – यहाँ पर चूर्णिसूत्रमें आठ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख किया है, अतः उनका आलम्बन लेकर 'क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का कुछ विवेचन करते हैं । यथा - ( १ ) सत्प्ररूपणा - सामान्यसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं। आदेशसे प्रत्येक गतिकी अपेक्षा विचार करनेपर चारों गतियों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव पाये जाते हैं। सिद्ध जीव एकमात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, किन्तु उनकी अपेक्षा यहाँ मीमांसा नहीं की जा रही है । ( २ ) संख्या—सामान्यसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । आदेश से मनुष्य गति में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संख्यात हजार हैं और शेष गतियों में असंख्यात हैं । यहाँ संख्यात हजार पदसे लक्षपृथक्त्वका और असंख्यात पदसे पल्योपमके असंख्यातवें भागका ग्रहण करना चाहिए । ( ३ ) क्षेत्र - सामान्य से क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का क्षेत्र स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और उपपादपदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है | वेदना, कषाय, वैक्रयिक, मारणान्तिक, तैजस और आहारक समुद्घातकी अपेक्षा भी क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण है । आदेश नरकगति, तिर्यञ्चगति और देवगतिमें यथासम्भव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्यगतिमें केवलिसमुद्धातको छोड़कर शेष सब सम्भव पदों की अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । मात्र केवलिसमुद्घातकी अपेक्षा क्षेत्र ओघके समान जानना चाहिए । ( ४ ) स्पर्शन - सामान्यसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का स्वस्थानपदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारवत्स्वस्थानपद तथा वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण, तैजस और आहारकसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण स्पर्शन है। आदेशसे नरकगति और तिर्यगति में सम्भव पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्यगति में केवलिस मुद्धातकी अपेक्षा स्पर्शन ओघके समान है तथा वहाँ सम्भव शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । देवगतिमें विहारवत्स्वस्थान तथा वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण है । तथा वहाँ सम्भव शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । काल - एक जीवकी अपेक्षा और नाना जीवोंकी अपेक्षाके भेदसे काल दो प्रकारका है। ओघसे एक जीवकी अपेक्षा कालका विचार करने पर जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मुक्त हो जाता है उसके संसारमें क्षायिक सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागरोपम है । इसका स्पष्टीकरण