Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा $ १५४. अंतरसमत्तिसमकालमेव एदाणि सत्त वि करणाणि पारद्धाणि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स समुच्चयत्थो। तत्थ मोहणीयस्स आणुपुव्वीसंकमो णाम पढमं करणं तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा—इत्थि-णवुसयवेदपदेसग्गमेत्तो पाए पुरिसवेदे चेव णियमा संछुहदि । परिसवेद-छण्णोकसाय-पञ्चक्खाणापच्चक्खाणकोहपदेसग्गं कोहसंजलणस्सुवरि संछुहदि, णाण्णत्थ कत्थ वि । कोहसंजलण-दुविहमाणपदेसग्गं पि माणसंजलणे णियमा संछुहदि, णाण्णम्हि कम्हि वि । माणसंजलणदुविहमायापदेसग्गं च णियमा मायासंजलणे णिक्खिवदि। मायासंजलणदुविहलोभपदेसग्गं च लोभसंजलणे णियमा संछुहदि त्ति एसो आणुपुचीसंकमो णाम । पुव्यमणाणुपुव्वीए पयट्टमाणो चरित्तमोहपयडीणं संकमो इदाणिमेदाए पडिणियदाणुपुवीए पयदि त्ति भणिदं होइ ।
१५५. 'लोभस्स असंकमो' त्ति विदियं करणं। एत्थ लोभस्से त्ति सामण्णणिदेसे वि लोभसंजलणस्सेव गहणं कायव्वं, वक्खाणादो विसेसपडिवत्ती होदित्तिणायादो। तदो पुव्वमणाणुप व्वीए लोभसंजलणस्स वि सेससंजलण-परिसवेदेसु पयट्टमाणो संकमो एण्हिमाणुपुव्वीसंकमपारंभे पडिलोमसंकमाभावेण णिरुद्धो त्ति एत्तो प्पहुडि लोभसंजलणस्स ण संकमो चेवे ति घेत्तव्वं । जइ वि आणुपव्वीसंकमेण चेव एसो अत्थो समुवलब्भइ तो वि मंदबुद्धिजणाणुग्गहट्ट पध णिहिट्ठो ति ण पुणरुत्तदोससंभवो।
$ १५४. अन्तर समाप्तिका जो काल है उसी समयसे ही ये सात करण प्रारम्भ हुये हैं यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। उनमेंसे मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रम यह प्रथम करण है उसे इस प्रकार जानना चाहिये । यथा-स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के प्रदेशपुञ्जको यहाँ से लेकर पुरुषवेदमें ही नियमसे संक्रान्त करता है । पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यानके प्रदेशपुञ्जको क्रोधसंज्वलनमें संक्रमण करता है, अन्य किसीमें नहीं । क्रोध संज्वलन और दोनों प्रकारके मानके प्रदेशपुञ्जको भी मानसंज्वलनमें नियमसे संक्रमण करता है, अन्य किसीमें नहीं। मानसंज्वलन और दोनों प्रकारके मायाके प्रदेशपुञ्जको नियमसे मायासंज्वलनमें निक्षिप्त करता है । तथा माया संज्वलन और दोनों प्रकारके लोभके प्रदेशपुजको नियमसे लोभसंज्वलनमें निक्षिप्त करता है यह आनपर्वीसंक्रम है। पहले चारित्रमोहनीय प्रकृतियोंका आनुपूर्वीके बिना प्रवृत्त होता हुआ संक्रम इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
$ १५५. लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है। यहाँ सूत्रमें 'लोभस्स' ऐसा सामान्य निर्देश करनेपर भी लोभसंज्वलनका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है। इसलिये पहले आनुपूर्वीके विना लोभसंज्वलनका भी शेष संज्वलन और पुरुषवेदमें प्रवृत्त होनेवाला संक्रम यहाँ आनुपूर्वीसंक्रमका प्रारम्भ होनेपर प्रतिलोमसंक्रमका अभाव होनेसे रुक गया । यहाँसे लेकर लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं ही होता ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि आनुपूर्वीसंक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तो भी मम्दबुद्धिजनोंका अनुग्रह करनेके लिये पृथक् निर्देश किया, इसलिए पुनरुक्त दोष नहीं प्राप्त होता।