Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 309
________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा $ १५७. सेसाणं छण्हं करणाणमत्थो सुगमो ति तप्परिच्चागेण जत्थ किंचि वि वत्तव्यमत्थि तविसयमेव पुच्छावक मेदमुवरि णिबद्धमिदि दट्ठव्वं । तं कधं ? बंधावलियादिकंतस्स कम्मस्स उदीरणा होइ ति सुपसिद्धमेदं, इदं पुण छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति तविरुद्धमिदाणिं परूविजदे, तदो छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति किं भणिदं होदि, णेदस्स सरूवं सम्ममवगच्छामो त्ति एदेण पुच्छा कदा होइ । संपहि एवं पुच्छाविसयीकयस्स पयदत्थस्स णिण्णयविहाणद्वमुत्तरो विहासागंथो-- * विहासा। $ १५८. सुगमं । * जहा णाम समयपबद्धो बद्धो आवलियादिक्कतो सक्को उदीरेदुमेवमंतरादो पढमसमयकदादो पाए जाणि कम्माणि बझंति मोहणीयं वा मोहणीयवजाणि वा ताणि कम्माणि छसु आवलियासु गदासु सकाणि उदीरेदु ऊणिगासु सु आवलियासु ण सक्काणि उदीरेदु। ६ १५९. जहा खलु हेट्ठा सव्वत्थेव समयपबद्धो बंधावलियादिकंतमेत्तो चेव १५७. शेष छह करणोंका अर्थ सुगम है, इसलिए उनको छोड़कर जिस विषयमें कुछ भी वक्तव्य है तद्विषयक ही पृच्छावाक्य यह ऊपर निबद्ध किया गया है ऐसा जानना चाहिए। शंका-वह कैसे ? समाधान--जिस कर्मको बन्धावलि व्यतीत हो गई है उसकी उदीरणा होती है इस प्रकार यह सुप्रसिद्ध है, परन्तु छह आवलियाओंके जाने पर उदीरणा होती है यह उसके विरुद्ध है, उसकी इस समय प्ररूपणा करते हैं-'छह आवलियाओंके जानेपर उदीरणा होती है। ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है, इसका स्वरूप सम्यक प्रकारसे नहीं जानते हैं इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पृच्छा की गई है । अब इस प्रकार पृच्छाके विषय हुए इस प्रकृत अर्थका निर्णय करनेके लिये आगेका विभाषा ग्रन्थ आया है * उसका विशेष व्याख्यान इस प्रकार है । $ १५८. यह सूत्र सुगम है। * जिस प्रकार बन्धको प्राप्त हुआ समयप्रबद्ध एक आवलिके बाद उदीरणाके लिए शक्य होता रहा इस प्रकार अन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर मोहनीय और मोहनीयके अतिरिक्त अन्य जो कर्म बँधते हैं वे कर्म बन्ध-समयसे लेकर छह आवलिप्रमाण काल जानेपर उदीरणाके लिये शक्य हैं, वे छह आवलियोंसे कम समयमें उदीरणाके लिये शक्य नहीं हैं। $ १५९. जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद ही नियमसे

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