Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
२६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (चरित्तमोहणीय-उवसामणा किंचि णिदरिसणमिह वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होइ।
* जहा णाम बारस किट्टीओ भवे पुरिसवेदं च बंधइ तस्स जं पदेसग्गं पुरिसवेदे बद्ध ताव आवलियं अच्छदि।
६१६३. उवसमसेढीए ताव बारसण्डं किट्टीणं संभवो चेव पत्थि, खवगसेढिविसयाणं तासिमेत्थासंभवणिण्णयादो। तदो खवगसेढिसमालंबणेण णिदरिसणमेदं घटावियव्वं । तत्थ वि पुरिसवेदबंधविसये बारसकिट्टीणमचंतासंभवो चेव, पुरिसवेदे संछुद्धे अस्सकण्णकरणे च णिट्ठिदे तदो परं किट्टीकरणद्धाए बारसण्हं किट्टीणं सरूवोवलंभादो । तदो एवंविहसंभवाभावे वि संभवसद्द मस्सियूण जइ किह वि एसो संभवो हवेज्ज तो णिदरिसणमेदमेत्थमणुगंतव्वमिदि एसो णिदरिसणोवण्णासो आढविज्जदि । तं जहा-बारसकिट्टीसु सेचीयसरू वेण विज्जमाणासु जइ तत्थ पुरिसवेदबंधसंभवो होज्ज तो तस्स तहाबंधमाणस्स खवगस्स परिसवेदसरूवेण जं बद्ध पदेसग्गं तं ताव सत्थाणे चेव बंधावलियमेत्तकालमविचलिदसरूवं होदण चिढदि ति एसा ताव एका आवलिया उदीरणावत्थापरंमुही समुवलब्भदे ।
___ * आवलियादिक्कतं कोहस्स पढमकिट्टीए विदियकिट्टीए च संकामिजदि। निर्णय करनेके लिए किंचित् निदर्शन यहाँ बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
___* यथा-बारह कृष्टियाँ होवें और पुरुषवेदका बन्ध होता है तो उसके पुरुषवेदमें बद्ध प्रदेशपञ्ज एक आवलि काल तक तदवस्थ रहता है ।
१६३. उपशमश्रेणिमें तो बारह कृष्टियोंका होना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि झपकश्रेणिविषयक उनका यहाँ नहीं होनेका निर्णय है । अतः क्षपकश्रेणिका आलम्बन लेकर इस निदर्शनको घटित करना चाहिये । उसमें भी पुरुषवेदके बँधते समय बारह कृष्टियोंका होना असम्भव ही है, क्योंकि पुरुषवेदकी निर्जरा होनेके बाद अश्वकर्णकरणके सम्पन्न होनेपर तत्पश्चात् कृष्टिकरणके कालमें बारह कृष्टियोंका सद्भाव पाया जाता है । इसलिए इस प्रकारकी सम्भावना नहीं होनेपर भी सम्भव शब्दका आश्रयकर यदि कहीं भी यह सम्भव होवे तो इस निदर्शनको यहाँपर जानना चाहिये इस प्रकार इस निदर्शनका निर्देश किया है । यथासिंचनरूपसे बारह कृष्टियोंके रहते हुए यदि वहाँ पुरुषवेदका बन्ध सम्भव होवे तो उस प्रकार बाँधनेवाले उस क्षपकके पुरुषवेदरूपसे जो प्रदेशपुञ्ज बँधा है वह सर्वप्रथम तो स्वस्थानमें ही बन्धावलिप्रमाणकाल तक अविचलितस्वरूप होकर ठहरा रहता है इस प्रकार यह एक आवलिउदीरणासे विमुख उपलब्ध होती है।
* बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद पुरुषवेदके उस प्रदेशपुञ्जको क्रोधकी प्रथम कृष्टि में और द्वितीय कृष्टिमें संक्रान्त करता है ।
१. तः. प्रती सरूबोवलद्धीदो इति पाठः ।