Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 312
________________ गाथा १२३ ] चरितमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिदेसो २६९ ६१६४. सत्थाणे बंधावलियादिक्कतं पुरिसवेदस्स णिरुद्धपदेसग्गं कोहसंजलणस्स पढमविदियकिट्टीसु जदो. संकामिज्जदे तदो तत्थ संकमणावलियमेत्तकालमविचलिदसरूवेणावचिट्ठदे। तम्हो एसा विदिया आवलिया उदीरणापजायविमुही समुवलब्भदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स अत्थविणिण्णओ। * विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिक्कंतं तं कोहस्स तदियकिट्टीए च माणस्स पढमविदियकिट्टीसु च संकामिजदि । १६५. एवं कोहस्स पढम-विदियकिट्टीसु संकंतं पुरिसवेदस्स पदेसग्गं तत्थावलियमेत्तकालावट्ठाणेण संकमपाओग्गं होदूण कोहविदियकिट्टीदो कोहस्स तदियकिट्टीए माणस्स पढम-विदियकिट्टीसु च संकामिजदि त्ति एसो तदियावलियविसयो दट्ठव्वो, तत्थ संकमणावलियमेत्तकालमणवद्विदस्स अवत्थंतरसंकतीए अभावादो । * माणस्स विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिक्कतं माणस्स च तदियकिट्टीए मायाए पढम-विदियकिट्टीसु च संकामिजदे । $ १६६. सुगममेदं सुत्तं । तदो एत्थ वि संकमणावलियमेत्तकालमवचिट्ठदि त्ति एसो चउत्थावलियविसयो। $ १६४. स्वस्थानमें बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद पुरुषवेदके विवक्षित प्रदेशपुजको क्रोधलंज्वलनकी प्रथम और द्वितीय कृष्टिमें यतः संक्रमाता है अतः वहाँपर संक्रमावलिप्रमाण काल तक वह अविचलितस्वरूपसे ठहरा रहता है, इसलिए यह दूसरी आवलि उदीरणासे विमुख उपलब्ध होती है यह इस सूत्रके अर्थका निर्णय है। * क्रोधकी उक्त कृष्टियोंमें रहे हुए पुरुषवेदके उस प्रदेशपुजको एक आवलिके व्यतीत होनेके बाद क्रोधकी दूसरी कृष्टिमेंसे क्रोधकी तीसरी कृष्टिमें और मानकी पहली और दूसरी कृष्टियों में संक्रान्त करता है। १६५. इस प्रकारपुरुषवेदका जो प्रदेशपुंज क्रोधकी प्रथम और द्वितीय कृष्टियों में संक्रान्त हुआ और जो वहाँ आवलिप्रमाण काल तक अवस्थान होनेसे संक्रमके योग्य हो गया उसे क्रोधकी दूसरी कृष्टिमेंसे क्रोधकी तीसरी कृष्टिमें तथा मानकी प्रथम और द्वितीय कृष्टियोंमें संक्रान्त करता है इस प्रकार यह तीसरी आवलिका विषय जानना चाहिये, क्योंकि वहाँ पणावलिप्रमाण काल तक अवस्थित हुए उसका अवस्थान्तररूपसे संक्रान्त होनेका अभाव है। ___ * क्रोध और मानकी उक्त कृष्टियोंमें रहे हुए पुरुषवेदके उस प्रदेशपुञ्जको एक आवलिके व्यतीत होनेके बाद मानकी दूसरी कृष्टिमेंसे मानकी तीसरी कृष्टिमें तथा मायाकी प्रथम और द्वितीय कृष्टियोंमें संक्रान्त करता है। $ १६६. यह सूत्र सुगम है । इसलिए यहाँ पर भी संक्रमणावलिप्रमाण काल तक अवस्थित रहता है इस प्रकार यह चौथी आवलिका विषय है।

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